पहली मुलाकात और पहला प्यार, न कोई इकरार न कोई...

पहली मुलाकात और पहला प्यार, न कोई इकरार न कोई...

फीचर्स डेस्क। मैं नहीं जानती थी कि प्यार क्या होता है। सिर्फ साथ में पढऩे वाली दोस्तों के मुंह से सुनी थी। हां कुछ ऐसी भी दोस्त थी जिन्हें किसी से प्यार था। लेकिन मै इस शब्द से काफी दूर थी। बात आज के 10 वर्ष पहले की है। फरवरी का महीना था। मैं प्रियंका (मौसी की लड़की) की शादी में दिल्ली गई थी। लगभग एक सप्ताह पहले पहुंच चुकी थी। मॉम-डैड शादी दो दिन पहले पहुंचे। वैसे तो शादी का माहौल काफी व्यस्त थी दीदी की शॉपिंग वगैरह चल रही थी। इसी बीच मुझे एक दिन कुछ अजीब सा लगा। ऐसा लगा कि कोई मुझे नोटिस कर रहा है। शादी के एक दिन पहले की बात दीदी की हल्दी का रस्म चल रहा था।

इसी बीच गेस्ट आ गए और मंै उन लोगों के लिए नास्ता लेने के लिए एक रूम में गई। जैसे ही नास्ता लगाकर निकली सामने एक शख्स खड़ा था। काफी अच्छी पर्सनाल्टी थी उसकी, थोड़ी देर के लिए मै रूक गई, मेरे मुंह से अचानक सा निकला आप। दूसरी तरफ से बहुत स्लो एक वाइस आई, जी। मामी ने मुझे कहा जाओं जल्दी नास्ता लगाने कशिश गई है, बोलो जल्दी करें। हां आप चलों मै लेकर आती हूं, मेरे मुंह से ये शब्द काफी डरे हुए लहजे में था। फिर मैं हिम्मत करके आगे बढ़ी ही थी कि याद आया फाइवर ग्लास भूल गई मेरे मुंह से निकला वो ग्लास।

मैं पिछे मुडऩा ही चाह रही थी उसने कहा कि लाओं मैं नास्ता ले चलूं आप ग्लास लेकर आ जाओ। मैं न तो ना कह सकी न हां, बस प्लेट उसकी तरफ बढ़ा दी। प्लेट उसके हाथ में देने के बाद मैं तेजी से फिर उसी कमरें चली गई। दुपट्टïे से मुंह पोछने लगी काफी पसीना निकल रहा था। अब ये डर था या कुछ और उस समय नहीं समझ में आया। ग्लास लेकर जल्दी-जल्दी बैठक रूम में पहुंची ही थी कि किसी ने सामने से आवाज लगाई। कशिश चाय बना दो, एक मिनट के लिए फिर मैं सोची ये कौन है। लेकिन उसके बारे में जानने के बजाय मैं बोली हां और चाय बनाने के लिए कीचन की ओर लपकी। चाय बनाकर कप में डाला और लेकर जैसे ही बाहर की तरफ मुड़ी वो फिर सामने खड़ा था।

एक्सीडेंट एक बार हो तो अनहोनी कहते हैं और दोबारा हो तो लापरवाही कुछ ऐसा मैने सुन रखा था अपने कानपुर में। जान पहचान थी नहीं इसलिए कुछ बोलना नहीं चाह रही थी। लेकिन तीसरी बार ऐसा न हो इसलिए मैने कहा मै लेकर आ रही थी आप क्यों आ गए। तो उसने कहा मा..मा.. मैने कहा मामी जी भेजी होंगी आपकी। फिर उधर से आवाज आई जी, लेकिन इस बार उसकी आवाज में भी डर था। मैने कहा ठीक है चलों आप मंै लेकर आ रही हॅंू। दूसरा दिन, यू ही निकल गया। तीसरे दिन दीदी की शादी थी।

गेस्ट की संख्या इतनी थी कि लगा आधी दिल्ली यही आ गई है। शादी वाले दिन भी वो बार बार न जानें क्यों वह मेरे आसपास किसी न किसी काम से लगा रहा। मै परेशान भी थी, लेकिन कहीं न कहीं थोड़ी खुश भी। क्योंकि यह मेरा पहला अनुभव था। शादी के दूसरे दिन दीदी की बिदाई थी मैं भी रो रही थी। पिछे से आकर किसी ने मेरे कानों में कहां मत रोओं आप, आप थोड़ी जा रही हों, मैं सच में रो रही थी अचानक उसकी तरफ देखी और होठों पर एकदम से हंसी आ गई। मैं कुछ बोलती उसके पहले वह वहां से न जाने कहा गायब हो गया। दीदी के जानें के बाद गेस्ट की सेवा में मै बीजी रही। शाम होने की थी मैं उसकी तलाश कर रही थीं। लेकिन किसी से पूछ नहीं सकती थी। बार बार हर जगह देखती रहीं।

वो नहीं दिख रहा था। मैं सोच रही थी मैंने उसका नाम तक नहीं पूछा। लेकिन अचानक से याद आया कि लोग उसको राहुल बेटा कहकर पुकार रहे थे। हमारी दिल्ली पहली बार जाना हुआ था। इसके पहले हम कभी मिले भी नहीं थे। जब वह नहीं दिखाई दिया तो मैंने मौसी से पूछा तो उन्होंने बताया कि वह मेरी ननद का लड़का था। उसका परीक्षा चल रही है इसलिए वह जल्दी चला गया। वो चला गया ये तो पता चल गया। लेकिन वह मेरे दिल से नहीं गया, ये मुझे मालूम था। उसका नंबर भी नहीं था मेरे पास। चार दिन बीता हम लोग कानपुर चले आए। लेकिन उसकी न जानें बड़ी याद आ रही थी। मैं रोज सोचते हुए सोती और उठकर उसके बारे में सोचती। दोस्तों से बता नहीं सकती थी। घर के लोग पुराने विचारवाले थे। मन ही मन सोचती, फिर खुद से प्रश्न करती और तसल्ली के लिए खुद को जवाब देकर सो जाती।

एक दिन एक फोन आया, रोजाना की तरह ही मैंने रिसिव किया। उधर से मौसी का आवाज थी। नमस्ते मौसी मैने बोली ही थी कि मौसी ने कहा ये लो आज राहुल आया है सोचा तेरी बात करा दूं। अब मौसी ने ऐसा क्यों कर रही हैं। इतना सोचने का उस टाइम मेरे पास कहा था। मैं बिना कुछ बोले उसकी आवाज सुनने के लिए इंतजार करने लगी। उधर से कुछ जानी पहचानी से आवाज आई हलो कशिश। वैसे तो कशिश मेरा नाम था। लेकिन उसकी आवाजों में जो कशिश थी वह मुझसे भी ज्यादा कहीं सुंदर थी। मैं बोला हां, आप कैसे हो, फिर एक सहमी और स्लो आवाज आई मैं ठीक हूं तुम।

मैं आगे कुछ बोलती कि मॉम ने कहा कौन है मैने बिना बोले मां को फोन पकड़ा दिया। हालंकि ये संभव नहीं था लेकिन हमारे संस्कार ने यह करने पर मजबूर कर दिया। उसने माम से बात किया और फोन रख दिया। मेरी बात फिर नहीं हुर्ई। मैने सोचा किसका नंबर हो सकता है। लगभग एक सप्ताह बाद मैंने उसी नंबर पर ट्राई किया तो वह उसी का नंबर था। मेरी लगभग 3 साल तक बात होती रही। लेकिन चोरी छिपे। फिर मेरी शादी हो गई। आज मैं ससुराल में हूं। इसी बीच हमारी कभी मुलाकात नहीं। वह पहली मुलाकात थी और पहला प्यार भी। बहुत याद आती है उसकी वो बात कि तुम इतना क्यों रो रही हो तुम थोड़ी जा रही हों। जब सोचती हूं तो अभी भी आंख में आंसू और होठों पर मुस्कान बिखर जाती है।                                                                                                     

नीरज त्रिपाठी, लखनऊ, उत्तर प्रदेश।

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