भाग्य या पुरुषार्थ

जब इन दोनों का विश्लेषण किया तो पाया मैंने समय को बदलते देखा है । कल तक जो बैठे थे सिंहासन पर , उनको भी पैदल चलते देखा है .....

 भाग्य या पुरुषार्थ

फीचर्स डेस्क। एक दिन मेरे मन में एक प्रश्न उठा 
" भाग्य बड़ा है या पुरुषार्थ " ?
मैं बहुत देर तक इसी ऊहापोह में रही ,
कभी भाग्य महत्त्वपूर्ण लगता,तो कभी पुरुषार्थ!!

जब इन दोनों का विश्लेषण किया तो पाया
मैंने समय को बदलते देखा है ।
कल तक जो बैठे थे सिंहासन पर ,
उनको भी पैदल चलते देखा है ।
समय का पहिया जब द्रुत -गति से घूमता है ,
तब राजा को रंक और रंक को राजा बनने में ,
जरा भी देर नहीं लगती !!!!


हाथों की मुट्ठी में बंद रेत को फिसलते देखा है ।
तात्पर्य यह निकला कि भाग्य प्रबल है !!!!
पर क्या बिना पुरुषार्थ किए,लक्ष्य पाना संभव है!
यदि मानव हाथ-पर-हाथ रखकर बैठ जाए ,
तो क्या अपनी महत्त्वाकांक्षा पूर्ण कर सकता है ?


कदापि नही....
"उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथै :।। 
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति हि मुखे मृगाः।
(अर्थात् , कुछ पाने के लिए उद्यम, प्रयत्न तो करना ही होगा , केवल मनोरथ या इच्छा करने मात्र से ही कार्य सिद्ध नहीं होते । जैसे ,सोते हुए सिंह के मुख में हिरन आदि पशु स्वयमेव ही प्रवेश नहीं कर जाते)


 निष्कर्ष-" अपने भाग्य का चरमोत्कर्ष पाने के लिए उद्यमशील तो होना ही पड़ेगा !!!! "

 इनपुट सोर्स -माधुरी मिश्र, मेंबर फोकस साहित्य ग्रुप