स्कूली जिंदगी तब और अब...
अखबार में लाते थे रोटी-भुजिया
कापी में छिपकर आता था अचार,
कोई लाता था मक्के की रोटी-साग
टिफिन में मिल खाते थे स्कूली यार ।
एक लड़की आती थी कार से स्कूल
टिफिन में लाती थी पूरी और मिठाई,
खुद खाती थी कम,बांटती दोस्तों में
तब होती थी मित्रों में इस कदर मिताई।
वह भी थी बचपन की स्कूली जिंदगी
होता था मित्रों में मिठास का भाव,
न कोई समझता था बड़ा,न कोई छोटा
सहपाठियों में न होता था कोई भेदभाव ।
मंगल के ठेला पर टूट पड़ती थी भीड़
चटखारे ले खाते थे पापरी और घूघनी,
कभी दिया कोई पैसा,कभी कोई और
कभी मस्ती होती थी नकद,कभी मंगनी।
एक वह भी थी जिंदगी,एक आज भी है
स्कूलों में भी हैं अमीरी- गरीबी के फासले,
अब साझा नहीं होते अन्न और न मन
अब दरकने लगा है बचपन और बच्चों के हौसले।
इंटरनेट में फंसकर रह गया है बचपन
अब उन्हें सहपाठियों की नहीं है जरुरत,
एकांत में बीतता है उनका मन और गम
मोबाइल से इतर उन्हें नहीं है फुरसत ।
इनपुट : राजीव गौतम, मेम्बर फोकस साहित्य ग्रुप।