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भाग्य या पुरुषार्थ
जब इन दोनों का विश्लेषण किया तो पाया मैंने समय को बदलते देखा है । कल तक जो बैठे थे सिंहासन पर , उनको भी पैदल चलते देखा है .....
कुम्हार...
स्वेद बिंदु से पोषित कर ,आंच पर जांचता,परखता हूं,कोयले की खदान से हीरे की खेप निकालता हूं। कभी कभी अपना हीं बचपन .....
थोड़ा सा मुस्कुरा लें
ज़िन्दगी की राहें थोड़ी मुश्किल हैं लेकिन तुम रुकना नही चलते जाना हौंसले की उड़ान से चलो आज मंज़िल को भी पा ही लेते हैं चलो आज थोड़ा सा...
मानव मन
स्वयं उगाता निज अभ्यारण्य, आजीवन करता फिर विचरण, नेत्र बंद कर ,पथ निर्धारण। चित्र विचित्र कितना मानव मन।
मानव मन
स्वयं उगाता निज अभ्यारण्य, आजीवन करता फिर विचरण, नेत्र बंद कर ,पथ निर्धारण। चित्र विचित्र कितना मानव मन।