लघु कथा : फेंकी हुई लड़की

जो लोग उस पर छींटाकशी करते हैं उनके सामने रह कर अपने आप को प्रमाणित करे. अपने आप से भाग कर वह कहीं भी जाएगी समस्या का समाधान नहीं हो पाएगा.. कहाँ तक भागेगी.....

लघु कथा : फेंकी हुई लड़की

फीचर्स डेस्क। सुबह की नींद से प्रिय और कुछ नहीं.. उस समय कुछ व्यवधान हो तो खटकना स्वाभाविक है। बाहर की शोर से गरिमा की आंखें खुल गईं। आंखें मूंदे- मूंदे ही उसने टेबल पर पड़े अलार्म घड़ी की ओर हाथ बढ़ाया। अभी तो चार भी नहीं बजे हैं। अभी तो ससुर जी के चाय का समय भी नहीं हुआ, वे नित्य चार बजे के बाद चाय पीकर टहलने जाते थे। फिर यह शोर कैसा..
" अरे बाप! कैसे- कैसे लोग हैं दुनिया में." " देखो तो.. कैसे फेंक दिया है इसे."
" हे भगवान! क्या होगा इन लोगों का."
" अरे ऊपर वाला श्राप देगा श्राप."
" घोर अनर्थ है.. दया- माया कुछ नहीं." " पाप है पाप.. कैसे कुत्ता नोच रहा है इस बच्चे को."
" कोई बचाओ भाई.. खा जाएगा इस जीव को।"

गरिमा उस घर की बहू थी। घर के लोगों की इच्छा थी कि बहू पढ़ी लिखी शिक्षित आए। इसके अतिरिक्त उनको बहू की शिक्षा में कोई रुचि नहीं थी। गरिमा को चौखट से बाहर या छत पर भी चढ़ने की अनुमति नहीं थी। लोगों का शोरगुल सुन कर उसकी जिज्ञासा का बढ़ना स्वाभाविक था। एक नवजात बच्चे के रोने- बिलबिलाने की आवाज उसके कानों में गूंज रही थी लेकिन वह कुछ देख समझ पाने में असमर्थ थी। कभी कभार रात के समय में अपने कमरे की बत्तियां बुझा कर वह खिड़की से बाहर आने-जाने वाले लोगों को देखा करती। छत पर कपड़े डालने के लिए उसे कामवाली का सहारा लेना पड़ता।
मन में चल रहे उथल- पुथल को शांत करना भी जरूरी था। भोर की किरण अभी अच्छी तरह फूटी भी नहीं थी। साफ- साफ दिखाई नहीं दे रहा था। बस.. लोगों की आवाजें कानों से टकरा रहीं थीं।

गरिमा ने अपनी खिड़की की ओट से झांक कर देखने की कोशिश की. पर स्पष्ट कुछ दिखा नहीं.. शोर से इतना तो वह समझ चुकी थी कि आसपास किसी नवजात शिशु को बड़ी निर्दयता से फेंक दिया गया है और उनकी बातों से यह भी स्पष्ट हो रहा था.. कुछ कुत्ते उस नवजात को घसीट रहे थे।
गरिमा को अपनी विवशता पर बहुत क्षोभ भी हुआ। अभी मायके रहता तो दनदनाती हुई निकल जाती और उसके गाँव में तो ऐसी शर्मनाक हरकत होती भी नहीं जहाँ मनुष्यता पर पशुता भारी हो। गाँव वाले ऐसी परिस्थितियों से बखूबी निपटना जानते हैं।  गाँव का कोई भी परिवार उस नवजात को इतनी निर्दयता से मरने के लिए नहीं छोड़ देता।  अब तक कोई महिला उसे अपनी छाती से लगा चुकी होती और वह अभागा शिशु अपने जीवन के  पहले निवाले का स्वाद ले चुका होता। गरिमा को अपने गंवार होने पर बड़े गर्व का अनुभव हुआ।
गरिमा की जिज्ञासा का समाधान अब कामवाली बाई ही कर सकती थी। आज उसे कामवाली की प्रतीक्षा बड़ी भारी लग रही थी। कामवाली ने ही उसे बताया कि कैसे कुत्ते उस बच्चे पर भिंडे़ हुए थे तब तक पड़ोस की एक निःसंतान महिला उसे उठा कर ले गई और वह नवजात बच्ची थी बच्चा नहीं।
" वो तो कहो बहुरिया.. उठा कर ले गई. नहीं तो हमहीं उठा लईती। जहाँ सात पोसाईल एगो अऊर पोसा जाईत।"

गरिमा थोड़ी आश्वस्त हुई चलो इस शहर में किसी एक में तो इंसानियत जिंदा है।
दिन बीतते गए. गरिमा ने उस बच्ची को देखने का कई- कई बार निरर्थक प्रयास किया लेकिन कभी सफल नहीं हुई.. हां कभी कभी उस बच्ची के रोने- किलकने की आवाजें जरूर आती रहतीं। लेकिन उस बच्ची को देखने की तीव्र लालसा उसके मन में हमेशा रही। और एक दिन उसकी यह लालसा पूरी भी हुई। बच्ची लगभग साल भर की रही होगी उसकी पाल्या उसे गोद में उठाए घर ले कर सास से मिलने आई।
" चाची! रेशमी का जन्मदिन है आज. आप लोगों की कृपा से मेरी भी गोद भर गई है। आज एक पूजा रखवाई है.. सबका भोजन भी मेरे यहाँ ही रहेगा.. आईएगा जरूर. बहुरिया को भी लेकर आईएगा।
वापस जाती हुई उस बच्ची की ओर सास ने एक तरह से उपेक्षा की दृष्टि डाली- " हाँ और क्या.. अब यही तो बाकी रह गया है.. चतुर्वेदी परिवार की बहू- बेटी अब ऐरे- गैरे के यहाँ घूमती चले। जात- धरम का कोई अता- पता नहीं.. महतारी बनी घूम रही है."

समय किसी की बाढ़ कहाँ रोक पाया है भला.. बड़ी होते ही वह बच्ची स्वयं भी चली आती थी। उसके मैदे जैसे गोरे रंग और चमकीली काली आंखों को देख कर गरिमा मोहित हो जाती..ईश्वर की रची हुई इस कोमल काया को कुत्ते नोंच कर खा जाते तो क्या होता..यह सोच कर भी कांप उठती. कई बार उसकी उत्कट इच्छा हुई कि उसे छूकर दुलार करे. लेकिन सास की खोजी दृष्टि से बचने का उसके पास कोई अवसर ही नहीं मिलता।
आसपास के लोग जानते थे कि चतुर्वेदी परिवार की बहू पढ़ी- लिखी है. कुछ पढ़ने- समझने के लिए बच्चे आ जाते थे। शुरू में तो सास को यह बात तनिक अच्छी नहीं लगी लेकिन बाद में उन्होंने एक मौन स्वीकृति दे दी।

एक दिन सुबह- सुबह रेशमी को लिए उसकी माँ दरवाजे पर खड़ी थी. गरिमा उसके रूप- सौंदर्य पर इतनी रीझ जाती थी कि अपने को वश में करना कठिन हो जाता।
" चाची! बहुरिया को कहिए ना थोड़ा इसे भी पढ़ा दिया करे. दो अछर यह भी सीख जाएगी."
" अरे बहुरिया को कहाँ समय है पढ़ाने- लिखाने का.. अपने बबुआ को तो कुछ पढ़ा ही नहीं पाती.. चूल्हे- चौके से समय कहाँ मिलता है कि अब गली- मोहल्ला में पढ़ाती फिरे. गली वाले स्कूल में नाम लिखा दो इसका." और फिर घूरती आंखों से गरिमा की ओर देखा.. जैसे गरिमा के लिए कोई चेतावनी हो. ऐसे ही कभी इस स्कूल कभी उस स्कूल लुढ़कते किसी तरह उसकी थोड़ी बहुत पढ़ाई हुई. जहाँ भी जाती घर- मुहल्ले से लेकर स्कूल तक लोगों की कानाफूसी शुरू हो जाती. पूरे मुहल्ले में उसके जैसी रूपवती लड़की नहीं होगी ऐसा गरिमा को लगता था.गली के मनचले लड़के तो उसे छेड़ने भी लगे थे।

रेशमी और उसकी माँ का मुहल्ले में रहना मुहाल हो गया. गरिमा को इन सारी बातों का पता कामवाली बाई से ही लगता था. गरिमा के मन में शुरू से ही रेशमी के प्रति एक सहानुभूति का भाव रहता था जिसे वह व्यक्त नहीं कर पाती थी। वह रेशमी के साथ ढेर सारी बातें करना चाहती थी. उसकी इच्छाएं जानना चाहती थी लेकिन कब और कैसे.. यह उसके लिए बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न था. एक ऐसी अभिलाषा जो शायद कभी पूरी भी नहीं हो।

लोगों से तंग आकर रेशमी की मां ने अपना घर बेंच देने का और कहीं और जाने का मन बना लिया. यह बात भी कामवाली ने ही बताया. एक कचोट जो गरिमा को खाए जा रही थी अब उसमें और वृद्धि हो गई. अब वह किसी तरह भी अपने आप को समझाने में सक्षम नहीं थी।
उसे याद है उसकी सास किसी शादी समारोह में अपने मायके गई हुईं थीं. पति भी काम- धंधे के सिलसिले में कुछ दिनों से बाहर थे. उसने रेशमी को अपने घर बुलवाया. रेशमी को सामने देख कर जैसे उसकी अधूरी साध पूरी हो गई. बहुत सारी बातें निकलती गईं और बातों के सिलसिले में ही रेशमी ने बताया कि कैसे अपने स्कूल और जिले के फुटबॉल मैच में वह जीत कर आई है और अब उसे राज्य स्तर पर खेलने जाना था. उसके मन की कई गांठे, कई परतें जो आज तक अनछुए रह गए थे थोड़ा सा अपनापन थोड़ी सी सहानुभूति पाकर खुलते चले गए।

गरिमा ने उसे हर समर्थन का दिलासा दिया. इन पंद्रह वर्ष में वह पूर्व की सहमी- संकुची बहुरिया नहीं रह गई थी.अब वह स्वयं और दूसरे के हिस्से की लड़ाई लड़ सकती थी. उसने रेशमी को भरोसा दिलाया कि वह जो भी चाहती है कर दिखाए। लोगों से डरे नहीं बल्कि उनका सामना पूरे साहस से करे. अपना घर मकान बेंच कर कहीं और जाने से उसकी समस्या का समाधान नहीं होगा. जो लोग उस पर छींटाकशी करते हैं उनके सामने रह कर अपने आप को प्रमाणित करे. अपने आप से भाग कर वह कहीं भी जाएगी समस्या का समाधान नहीं हो पाएगा.. कहाँ तक भागेगी वह.ईश्वर की इच्छा से यह बात रेशमी और उसकी माँ बहुत जल्दी ही समझ में आ गई. कहीं और जाने  की बात उनके दिमाग से हमेशा के लिए निकल गई। फुटबॉल मैच में उसकी जीत लगातार होती गई। उसके स्कूल से शुरू हुई इस छोटी सी यात्रा ने जिला स्तर पर, राज्य स्तर पर फिर राष्ट्र स्तर पर अपनी अलग पहचान बना ली. लोग उसे जानने लगे, उसकी सराहना करने लगे, उसका उदाहरण देने लगे. खेल के आधार पर उसे रेलवे में नौकरी मिल गई. रेशमी अपने मुहल्ले के लिए एक मिसाल बन गई।

नौकरी लगने की खुशी में उसकी माँ ने पूरे मुहल्ले में जी भर मिठाईयाँ बांटी. मिठाईयाँ लेकर गरिमा के घर स्वयं रेशमी आई थी. गले लगाकर गरिमा ने उसका स्वागत किया. गरिमा के लिए सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो यह थी कि जीवन भर उपेक्षा करने वाली सास ने रेशमी को रात के खाने का न्योता भी दे दिया और उसके जाने के बाद पहली बार कुछ कहा-" अच्छी लड़की है. भगवान करे इसको घर- वर भी अच्छा मिल जाए।"
आज वह स्टेशन मास्टर के रूप में भारत सरकार को अपनी सेवाएं प्रदान कर रही है।

इनपुट सोर्स: डॉ शिप्रा मिश्रा