"प्रतिबंध"

"प्रतिबंध"

फीचर्स डेस्क। परीक्षाएं चल रही थीं। शैली की गार्डिंग थी। बड़े लड़के-लड़कियों को संभालना थोड़ा कठिन होता है। पर कमर दर्द के कारण वह अधिक देर तक घूम नहीं पायी। सहकर्मी पर सारा भार देकर वह थोड़ी आश्वस्त-सी हो गई। सामने उसका अपना क्लास था। लड़कियां खेल रही थीं। पकड़ा-पकडी़, लुक्का-छिप्पी और न जाने क्या-क्या..शोर तो इतना हो रहा था कि उसका जी चाहा अभी जाकर दो-चार हाथ लगाए। पर उसे अपने आपको संयत रखना पड़ा। धीरे-धीरे शैली को उनका हंसना-खिलखिलाना अच्छा लगने लगा। आखिर कितना प्रतिबंध लगाए उन पर और क्यों?

लड़कों का भी स्कूल होने के कारण उसे बहुत कड़ा रुख अपनाना पड़ता है-इधर-उधर नहीं जाओ.. समूह में बाहर नहीं जाओ..बिन्दी-टिक्का, झुमका-बाली पहन कर स्कूल नहीं आओ..दो चोटी-काला रिबन लगा कर आओ.. और न जाने क्या-क्या??

उसे लगता औरत होने का वह नाजायज फायदा उठा रही है। जीने दो स्वतंत्र सभी को। लेकिन किसी आशंका को लेकर वह अक्सर डरी रहती है।उसे यह भी डर है कि प्रतियोगिता के इस दौर में ये लड़कियां अपने लक्ष्य से भटक कर कहीं दूर न चली जाएं।

और एच.एम. की हिदायतें भी तो उसके कानों में गूंजा करती हैं-मैडम!! आपके क्लास की लड़कियां बहुत शोर करतीं हैं। प्लीज कंट्रोल कीजिए। लड़कों से बहुत बातें करती हैं। उन्हें डांटिए.. क्लास की सफाई ढंग से नहीं करती हैं-वगैरह.. वगैरह।

उसे लगता है शायद सभी पुरुष इन महिलाओं से डरते हैं। कहीं ये महिलाएं हमारे दायरे से बाहर न निकल जाएं। शैली को लगता है कि आज की महिला तो पहले से भी ज्यादा शक्तिशाली है। सचमुच वह अष्टभुजा तो है ही-एक हाथ में बेलन-छोलनी तो दूसरे हाथ में बरतन धोने का झाबा, तीसरे में झाड़ू-पोंछा तो चौथे में सर्फ का डब्बा, पांचवें में मोबाइल तो छठे हाथ में बैंक का पासबुक, सातवें में सब्जी का थैला तो आठवें में परीक्षा की कापियों के बंडल। इतने सारे काम एक साथ तो एक अष्टभुजा ही कर सकती है।

अब वह अपने बच्चों को संस्कार का पाठ कब पढाए.. गीता-रामायण कब सुनाए। आज तो बच्चों के हाथ से आंचल छुड़ा कर स्कूल का टाइम टेबल पकड़ना पड़ता है। कभी-कभी उसे लगता है क्या यही विकास है? क्या यही नारी समाज की असली उन्नति है?

 क्लास में अच्छा अंक लाने वाली पूजा जब क्लास में फेल होने लगी तो उससे रहा नहीं गया। आखिर ऐसी स्थिति क्यों? लेकिन पूजा को तो घर के सारे काम करके पढाई करनी होती है। वह अच्छे अंक लाएगी तो कहां से?

 उसे चार-पांच साल पहले की माधवी की बातें याद आ रही थीं-"दीदी!! मैं आपकी तरह टीचर बनना चाहती हूं।अज्ञान का अंधेकार दूर करना चाहती हूं। लोगों में प्यार बांटना चाहती हूं। दीदी मैं ऐसा करके दिखाऊंगी।"

कुछ दिन पहले बाजार जाते समय रास्ते में उसने माधवी को देखा।सारी आशाएं, सारी उम्मीदें धुंधली नजर आने लगीं। उसके भरे हुए मांग और भर-भर हाथ चूड़ियां,गोद में बच्चा.. जब वह शैली के पांव छूने के लिए आगे बढ़ी तो पता नहीं क्यों उसके हृदय का आशीर्वाद कहीं गले में अटक कर ही रह गया। उसका मन अनमना-सा होकर रह गया। अभी तो शादी की उसकी उम्र भी नहीं थी।उसे तो वह प्रतिभाशाली सीमा भी याद है जिसने बार-बार फोन करके उससे मदद मांगी थी-"मुझे बचा लीजिए मैं अभी शादी करना नहीं चाहती।"

उसका मन रुआंसा हो रहा था।आज भी कितना पीछे हैं हम। समय से हजारों-हजार साल पीछे.. क्या कर पाई वह आज तक? क्या कर पाएगी वह आगे?सारा साहस,सारा जोश पति की एक झिड़की पर ही ठंडा हो जाता है-"घर तो संभलता नहीं, चली हैं दुनिया संभालने।"

उसे अपना व्यक्तित्व बहुत बौना दिखाई देता। जब वह स्वयं मजबूत नहीं तो दूसरों को उपदेश देने चलती ही क्यों है?वह तो चाहती है उन सभी लड़कियों की शिक्षा का भार स्वयं अपने ऊपर ले ले। लेकिन एक प्राईवेट स्कूल की नौकरी और इतनी बड़ी जिम्मेदारी.. हथेली पर सरसों उगाने वाली बात! शैली को लगा कि अगर वह हार जाएगी तो उसकी सारी लड़कियां भी हार जाएंगी। उसे अपने निश्चय पर अडिग रहना ही होगा। वह दोगुने आत्मविश्वास से उठ खड़ी हुई। घंटी लग चुकी थी। परीक्षा समाप्त हो चुकी थी। वह संयत होकर धीरे-धीरे अपने मजबूत कदम उठाते हुए अपने न‌ये इरादों को पंख देने के लिए आश्वस्त हो कर चल पड़ी। लड़कियों की खिलखिलाहट अभी भी उसके कानों में संगीत जैसे गूंज रहे थे और उसका मन-मयूर थिरकने को उतावले हो उठे थे।

इनपुट सोर्स : डॉ शिप्रा मिश्रा, एडमिन, फोकस साहित्य ग्रुप।