चादर पर जितनी सिलवटें....

चादर पर जितनी सिलवटें....

फीचर्स डेस्क। आज मेरा काफी दिनों के बाद सिरदर्द हो रहा था। कोई आसपास था भी नही जो मुझे एक कप चाय बना के पिला देता। खुद से ही उठी और चाय बना के बालकनी में बैठ गई चाय की चुस्कियाँ लेते लेते मैं अतीत की शोर शराबें वाली गलियों में पहुँच गई।

मम्मी मेरी फाईल कहां है?

मम्मी मेरा आज ऐग्जाम है पढ़ा दो ना।

शुभांगी मेरे दोस्त आ रहे हैं कुछ अच्छा बना दो प्लीज।

मेरा इसी तरह की व्यस्तताओं के बीच सारा दिन बीत जाता और शाम होते होते मेरे सिर में दर्द शुरू हो जाता । मेरी खींझ और गुस्सा तब बढ़ जाता जब मैं काम निपटा के कमरे में पहुंचती और बच्चे बेड पर कापियाँ किताबें बिखराये पढ़ रहे होते।

चादर पर जितनी सिलवटें होती उस से कई ज्यादा सिलवटें मेरे माथे पर पड़ जातीं। बच्चों पर चीखती चिल्लाती बेड की चादर ठीक करती फिर जा कर लेटने को मिलता। हालांकि बच्चों के अपने स्टडी टेबल थे पर फिर भी उनको बेड पर पढ़ने का ही मजा आता। कितना भी समझाओ फिर भी जब भी कमरे में जाओ बेड की सिलवटें मुँह चिढ़ा रही होती।

धीरे-2 बच्चे कब अपने आप में व्यस्त हो गए कब बेड से उठ कर कोचिंग के कमरों में पहुँच गए पता ही न चला। सुबह के गए शाम को आते। आते ही या तो मोबाईल में गुम हो जाते या बस पढ़ते। सारा दिन घर व्यवस्थित रहने लगा। खिलौने भी सहम कर कब और कैसे किन कोनों मे दुबक गए थे पता ही न चला बच्चों के कमरे मे बस किताबें, फाईल और उनकी स्टेशनरी ही दिखती।

पता नही शायद मेरी चिल्लाने के आदत से परेशान हो कर बच्चे खुद ही चादर की सिलवटें ठीक करने लगे । धीरे धीरे मेरा सिरदर्द भी कम होने लगा था। बच्चे मेरे कमरे से निकलकर अपने कमरे में सिमटने लगे या यूँ कहे अपनी ही दुनियाँ में।

फिर कुछ दिन बाद चिड़िया के बच्चों की तरह फुर्र से उड़कर दूसरे शहरों में पढ़ने चले गये । धीरे-2 मेरे अन्दर का शोर भी थमता चला गया। मैंने अपने आपको अन्य कार्यों में व्यस्त कर लिया। अपने सारे शौक पूरा करने लगी। सोशल सर्किल भी काफी बढ़ गया था मेरा पर आंखों में नमी सी रहने लगी जब देखो बरसने को तैयार रहती। बात बात पर बच्चों की याद आती। उनकी आवाज़े और फरमाइशें सुन ने को मन तरस गया था। घर मे भी सन्नाटा सा पसरा रहता।

कमरे में आती तो चादर भी शांत नदी की तरह चुप्पे से बेड पर पसरी होती मन करता एक पत्थर उठा कर उसमें हलचल पैदा कर दूँ । बच्चे भी जब मिलने आते तो कमरे में सिर्फ सोने जाते। सारा दिन मिलने मिलाने घूमने में ही बीत जाता। बेड की चादर भी मेरी तरह उनका इंतज़ार ही करती । मेरा शांत मन भी अब कुछ हलचल चाहने लगा था। अब फिर से सिर में दर्द रहने लगा।

करीने से बिछी चादर मेरा मुँह चिढ़ाती । व्यवस्थित घर, शांत दीवारे सब मेरा मुँह ताकते कहीं कोई हलचल नही। आज समझ मे आया बच्चे वह रौनक है जिससे घर की हर चीज़ जीवंत है । व्यवस्थित घर सब को अच्छा लगता है लेकिन शांत पानी, कब गंदे पानी में बदल जाता है पता भी नही चलता इसीलिए life में हलचल और सिलवटें भी जरूरी हैं।

इनपुट सोर्स : दीपाली वासवानी, लखनऊ सिटी।