लघु कथा : गुस्सा, खामोशियाँ बोलती है

तुम्हारी खामोशी ने ही आज मेरा दिल जीत लिया, और देखो तुम्हारी खामोशी बोल पड़ी। आजतक तुमने पलटकर जवाब नही दिया। कई बार मेरे मन मे ये सवाल उठता था, किस मिट्टी की बनी है मेरी रितु......

लघु कथा : गुस्सा, खामोशियाँ बोलती है

फीचर्स डेस्क। "रितु, कहाँ हो ? देखो तुम्हारे लिए तुम्हारी पसंद के गोल गप्पे, कचौड़ी लेकर आया हूँ, जल्दी से चाय बनाओ, आज साथ बैठकर आनंद लेंगे।" राजन ने कहा

"सुनो, आज आप आफिस गलती से मेरा मोबाइल उठा ले गए थे क्या? आपका मोबाइल टेबल में रखा था।"

"वो सब छोड़ो, पहले आओ चाय नाश्ता किया जाए।"

"आ रही हूं, पर आज सुबह सूरज पश्चिम से निकला था क्या? रोज तो आते ही चीखना चिल्लाना शुरू हो जाता था, मैं खामोश रहना पसंद करती थी।"

"तुम्हारी खामोशी ने ही आज मेरा दिल जीत लिया, और देखो तुम्हारी खामोशी बोल पड़ी। आजतक तुमने पलटकर जवाब नही दिया। कई बार मेरे मन मे ये सवाल उठता था, किस मिट्टी की बनी है मेरी रितु, इतना चुप क्यों रहती?"
"जानती हो, आज आफिस में काम कुछ कम था, तुम्हारा मोबाइल देखता रहा, नोट्स पर पहुँचा तो हर इतवार को तुम जो अपने दिल का हाल उंगलियों के ज़रिए उतार फेंकती थी, वो सब पढ़कर तुम मेरे दिल मे उतरती चली गयी। मैं आत्मग्लानि से भर उठा, ये मैंने क्या कर दिया?

व्यस्तता और गुस्सा इतना भी नही होना चाहिए कि एक छत के नीचे रहने वाले मन की बाते किसी से बोल ही न पाए।

इनपुट सोर्स: भगवती सक्सेना गौड़

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