परांठे...

मैडम आती ही होंगी आप उनके कमरे में इंतजार कीजिए।" उसने बड़ी  विनम्रता से जवाब दिया। मैं और मेरे पति जाकर भीतर बैठ गए। मैडम शब्द सुनकर मेरा शक और पुख्ता हो गया हो न हो यह दर्शना ही है। कुछ समय बाद सफेद सूट और नीले दुपट्टे में एक महिला ने कमरे के  भीतर  प्रवेश किया। मैंने जब गौर से देखा तो चेहरा जाना पहचाना लगा। यह दर्शना ही थी। उम्र की परछाइयां चेहरे पर आ चुकी थीं...

परांठे...

फीचर्स डेस्क। दर्शना को स्कूल में हमेशा मैंने सफेद सूट और नीले दुपट्टे में देखा था। छठी क्लास से लेकर दसवीं क्लास तक दर्शना के पास भूरे रंग का एक ही थैला था जिसमें वह अपनी किताबें और खाना लेकर आती थी। खाने में वह हमेशा  डालडा के बने नमक मिर्च के तीन परांठे लेकर आती थी और आते ही अपना डिब्बा धूप में रख देती। लंच टाइम तक उसके  पराठे खूब गर्म हो जाते और फिर वह मजे से बैठकर लंच टाइम में हम सबके साथ खाती। उसके गरमा गरम खाने के आगे हमें अपना खाना फीका लगने लगता और फिर हम दर्शना से उसके पराठे का एक टुकड़ा  देने की गुहार लगते। दर्शना का एक परांठा तो हम सबको देने में खत्म हो जाता। कुछ दिन बाद वह दूर बैठकर हम सब से अलग अकेले ही खाने लगी लेकिन हम भी ढीठ बनकर  वहीं पहुंच जाते। अब हम सबके बीच औपचारिकताएं खत्म हो चुकी थी। हमारा स्कूल छठी क्लास से शुरू होता था।

प्राइमरी तक की पढ़ाई सब लोगों ने अलग-अलग स्कूलों में की थी। दर्शना भी अपने घर के पास के एक प्राइमरी स्कूल में पढ़कर हमारे स्कूल में आई थी।उसके पिता रिक्शा चलाते थे। अब जब भी हम दर्शना से उसका खाना मांगते तो वह हमें घूरने लगती।वह हमेशा यही कहती कि अपनी मां से कह कर तुम पराठे क्यों नहीं बनवा लेते। एक दो बार मैंने  मां से कहा भी लेकिन उनके खाने में वह मजा न था जो दर्शना के खाने में आता। कुछ दिन बाद दर्शन का खाना चोरी होने लगा। बच्चे उसके थैले से निकालकर या ग्राउंड में से टिफन उठाकर खा जाते जिसकी शिकायत दर्शना ने कई बार टीचर से भी की। दर्शना के पिता हमारे ही स्कूल के कुछ बच्चों को रिक्शा पर घर तक छोड़ने का काम करते थे लेकिन दर्शना गर्मी हो या बरसात चाहे कितनी भी सर्दी हो वह पैदल ही अपना थैला उठाकर स्कूल आती । बारिश के दिनों में उसके पास एक फटी हुई बरसाती थी  जिसे पहन कर वह आधी सूखी आधी भीगी स्कूल आया करती थी। कई बार तो उसके पिता बच्चों को रिक्शा में लादे उसके पास से गुजर जाते। और हम यही सोचते कि कितने निर्दयी पिता है कि अपनी बेटी को यूं इस तरह छोड़कर वह औरों के बच्चों को घर तक पहुंचाने में व्यस्त हैं।

हम कई बार दर्शना से इस विषय में बात भी करते तो वह मुस्कुरा कर चुप हो जाती है। एक बार दर्शना ज्यादा भीगने के कारण बीमार भी हो गई। उस दिन हमने पहली बार उसको अपने पिता की रिक्शा पर बैठकर डॉक्टर के पास जाते देखा था।दर्शना पढ़ाई में भी बहुत होशियार थी।लेकिन एग्जाम के समय सब बच्चे अपने आगे या पीछे वाले से कुछ न कुछ पूछने में लगे रहते। दर्शन न तो किसी से कुछ पूछती थी और न ही किसी को कुछ बताती थी।।जब परिणाम आता तो वह अच्छे अंको से उत्तीर्ण होती। यह देखकर हमें और  क्रोध आता कि वह हमें अपना पर्चा नकल के लिए क्यों नहीं देखने देती। दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद सब लोग अलग-अलग कॉलेजों में चले गए उस समय स्कूल 10वीं या 12वीं कक्षा तक ही होते थे। दर्शना अब एक याद बनकर रह गई। लेकिन जैसे जैसे हम बड़े होते गए हमें उस की मजबूरियां समझ में आने लगी।  दर्शना के अलावा उसके पांच बहन भाई और थे जिनके पालन पोषण की जिम्मेदारी पिता पर थी।

बहन-भाइयों में सबसे बड़ी दर्शना हमारे साथ लड़कियों के स्कूल में पढ़ती थी। उसके दो भाई पास वाले लड़कों के स्कूल में थे। दो भाई और एक छोटी बहन घर पर ही रहते थे। कई बार शाम को जब हम बाजार जाते  तो उसका भाई रिक्शा चलाते हुए मिल जाता। हालांकि उसके पैर भी पैडल तक न पहुंच पाते वह कभी एक  और झुक जाता तो कभी दूसरी ओर। अगले दिन सभी लड़कियां  दर्शना के सामने उसके भाई की  खिल्ली उड़ातीं।

"अरे दर्शनों का भाई अपने पिता के बिजनेस में हाथ बंटाता है।" कोई लड़की कहती। "हां सही कह रही हो।वह अपने पिता के प्रोफेशन में ही कैरियर बना रहा है।" कहकर सभी लड़कियां हंसने लगती और  दर्शना  मुस्कुरा कर रह जाती। लेकिन जैसे जैसे हम बड़े हुए तो पता चला उसके पिता को अस्थमा की बीमारी थी और वह केवल दिन में ही कुछ समय के लिए बच्चों को ढोने का काम कर पाते थे लेकिन घर के गुजर-बसर के लिए इतना काफी नहीं था इसलिए शाम को बेटे को  रिक्शा चलानी पड़ती। कहते हैं गरीबी में बच्चे जल्दी बड़े हो जाते हैं। घर में रात को ज्यादा पानी डालकर दाल बनाई जाती और उसी उबली दाल से पूरा परिवार खाना खाता था। दिन में बच्चों को ऐसी ही नमक मिर्च वाली सुखी  रोटी बनाकर दे दी जाती  केवल दर्शना को ही एक तरफ से डालडा लगा कर परांठा सेक कर दिया जाता था।

कभी-कभी उस की याद आती तो  दिल भर आता। न जाने कैसी होगी, किस हाल में होगी आज दर्शना। कभी-कभी मन में यह प्रश्न   उठने  लगता तो दूसरी ओर यही लगता कि उसका भी किसी  रिक्शा वाले से विवाह हो गया होगा और अपनी मां की तरह उसके भी चार पांच बच्चे होंगे और अभावग्रस्त जिंदगी जी रही होगी

एक बार विवाह के बाद जब मैं अपने पति और बच्चों के साथ मायके गई तो मां के बीमार होने के कारण हमने बाहर खाना खाने का प्रोग्राम बनाया। आज मेरा मन अपना पुराना स्कूल देखने का भी था जहां दर्शना के साथ मैंने 5 साल गुजारे थे। मैंने अपने पति   से स्कूल  देखने की इच्छा जताई और वही  स्कूल के पास ही किसी रेस्तरां में खाना खाने का कार्यक्रम हम लोगों ने बनाय।जैसे ही हम  स्कूल  के पास पहुंचे तो उसके सामने  एक रेस्टोरेंट दिखाई दिया जिसके ऊपर लिखा था दर्शना के पराठे। मेरे कदम  अनायास उस ओर बढ़ गए। मन में एक उत्सुकता भी थी कहीं यह वही दर्शना तो नही। रेस्तरां के अंदर प्रवेश करते ही काउंटर पर खड़े लड़के ने मुझसे पूछा "जी कहिए,मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?" " मुझे इस होटल के मालिक से मिलना है।"मैंने उस लड़के से कहा।

 " मैडम आती ही होंगी आप उनके कमरे में इंतजार कीजिए।" उसने बड़ी  विनम्रता से जवाब दिया। मैं और मेरे पति जाकर भीतर बैठ गए। मैडम शब्द सुनकर मेरा शक और पुख्ता हो गया हो न हो यह दर्शना ही है। कुछ समय बाद सफेद सूट और नीले दुपट्टे में एक महिला ने कमरे के  भीतर  प्रवेश किया। मैंने जब गौर से देखा तो चेहरा जाना पहचाना लगा। यह दर्शना ही थी। उम्र की परछाइयां चेहरे पर आ चुकी थीं। बचपन का वह मासूम चेहरा अब परिपक्व हो चुका था लेकिन वह  बेहद खूबसूरत नजर आ रही थी। गरीबी मे अभावग्रस्त जीवन के कारण उसके चेहरे की जो रौनक बचपन में चली गई थी वह रोनक अब उसके चेहरे पर झलक रही थी। कटे हुए बाल, चमकती आंखें, सफेद सिल्क का सूट और उस पर नीला किनारी का दुपट्टा उस पर बहुत जच रहा था। आज भी दर्शना को सफेद और नीला रंग ही पहनना पसंद था। हां कपड़े का मेटेरियल कुछ महंगा हो चला था। खद्दर की जगह सिल्क ने ले ली थी और मलमल के दुपट्टे की जगह भारी किनारीवाला नीला दुपट्टा उस पर खूब जच रहा था। कुछ देर ध्यान से देखने के बाद दर्शना भी मुझे पहचान गई और फिर बड़े गर्मजोशी से मेरे गले लग गई।

"अरे दर्शना तुम तो बिल्कुल बदल गई हो। और यह क्या? यह रेस्तरां तुमने कब  खोला। स्कूल के बाद की अपनी यात्रा के बारे में कुछ बताओ।" मैंने दर्शना से एक ही सांस में कह डाला और फिर अपने पति की ओर इशारा करते हुए मैंने बोला "यह है तुम्हारे जीजा जी मिस्टर सूरज। और सूरज यह है मेरी बचपन की सहेली दर्शना। हम दोनों सामने  वाले सरकारी स्कूल में एक साथ पढ़ते थे।"

दर्शना ने हाथ जोड़कर सूरज को नमस्कार किया और फिर सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई। बताती हूं सब बताती हूं पहले आप लोग कुछ चाय ठंडा तो ले लो। बोलो क्या मंगवाऊं?"

" कुछ भी चलेगा।" मैंने कहते हुए सूरज की और देखा तो उन्होंने भी सहमति में अपना सिर हिला दिया । "पर दर्शना मैं तुम्हारी जीवन यात्रा के बारे में जानने के लिए उत्सुक हूं। तुम्हारे माता-पिता कैसे हैं और भाई बहन क्या करते हैं?"मैंने दर्शना से पूछा तो उसकी आंखों में हल्की सी उदासी छा गई।

कुछ देर  मौन रहने के बाद उसने अपने जीवन के बारे में बताना शुरू किया "तुम तो जानती हो कि पिताजी अस्थमा के मरीज थे। एक दिन जब वे स्कूल के बच्चों को लेकर उनके घर छोड़ने जा रहे थे तो रास्ते में ही उनको अस्थमा का दौरा पड़ गया और वहीं सड़क पर ही उनकी मृत्यु हो गई। पूरे घर का बोझ मां और मुझ पर आन पड़ा। मां आसपास के लोगों  के यहां  झाड़ू बर्तन करने लगी  मैं छोटे भाई बहनों के लिए घर रह कर खाना बनाती  एवं देखभाल करती । मुझे स्कूल का समय बहुत याद आता था जब तुम लोग अपना खाना छोड़ कर मेरे पराठे खा जाते थे। तब मेरे मन में एक विचार ने जन्म लिया कि क्यों न मैं पराठे बनाने को  एक व्यवसाय के तौर पर आरंभ करूं। लेकिन व्यवसाय शुरू करने के लिए पैसों की भी आवश्यकता होती है जो कि हमारे पास बिल्कुल भी नहीं थे। मैंने अपने  स्कूल के सामने सड़क पर ही  एक चूल्हा लगाकर यह काम शुरू कर दिया। मुझे आशा थी कि स्कूल में तुम्हारे जैसे बच्चे फिर आएंगे जो मेरे परांठे  खाना पसंद करेंगे। और मेरी यह कोशिश कामयाब रही। फिर मैंने तरह-तरह के पराठे बनाने शुरू कर दिए और यह मेरे खाने की एक  विशेषता बन गई और लोग दूर-दूर से आने लगे। धीरे-धीरे धंधा चल निकला।मैंने अपने सभी बहन भाइयों को अच्छी शिक्षा देकर सेटल किया। लेकिन स्वयं विवाह नहीं किया। दर्शना की कहानी सुनकर मेरी और सूरज की आंखें भर आई और साथ ही मन उसकी हिम्मत और जज्बे के लिए श्रद्धा से भर गया।

"चलो आज तुम्हें वही नमक मिर्ची वाले परांठे खिलाती हूं। आज तुम्हें न तो चुराने पड़ेंगे न ही मांगने पड़ेंगे ।तुम और तुम्हारे पति जी भर कर खाना।"अचानक दर्शना की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई।फिर वह सूरज से चुहल बाजी करने लगी "आपको पता है जीजू स्कूल में क्या होता था……" उसकी आवाज दूर कहीं गुम होती जा रही थी और मैं मुस्कुराते हुए  केवल उसे देख रही थी।