"लौट आओ शर्मिष्ठा"  

"लौट आओ शर्मिष्ठा"   

फीचर्स डेस्क। प्रियसी ने कभी सोचा न था कि अपने कुनबे से बाहर जाकर कभी स्वयं को आजमाना होगा। परन्तु विवाह के पश्चात तो स्व या स्वयं शेष रह जाये इसकी कल्पना भी एक तरह से मूढ़ता है। उसमें भी जब प्रतिपालकों का विशेष और अतिशय संस्कृतिवाद हो तब तो स्थिति और भी चुनौतीपूर्ण हो सकती है। 'प्राण जाए पर वचन न जाई'।   व्यष्टि मिट जाए परन्तु समष्टि का जीवित रहना और रखना- दोनों ही सर्वोपरि है।

प्रियसी के लिए बैंगलोर हर तरह से अपरिचित था। वहाँ की भाषा, परिवेश, संस्कृति, खान-पान, वेशभूषा। पति वहाँ 14-15 वर्षों से रहते आये थे इसलिए उन्हें वहाँ तालमेल बैठाने में कोई समस्या नहीं आई। वे सुबह आठ बजे निकलते तो फिर आठ बजे रात को ही वापस आते। बीच के बारह घंटे बहुत उबाऊ होते। घरेलू कामकाज निपट जाने के बाद भी अत्यधिक समय बच जाता था। घरेलू जिम्मेदारियों से मुक्त होते ही वह अपनी बालकनी में घंटों बैठी रहती। सामने आते- जाते लोगों को निहारा करती। वहाँ की औरतें जब अपने द्वार पर सुंदर- सुंदर रंगोली बनातीं तो प्रियसी अपनी डायरी में उसे हूबहू उतारने की और स्वयं के द्वार पर आकल्पित करने का भरसक प्रयत्न करती। प्रत्येक रविवार को पति की छुट्टियां रहतीं। फिर बच्चे को साथ लेकर सब घूमने निकल जाते- कभी लालबाग, कभी विधान सभा, कभी नेहरू पार्क, कभी बनरघट्टा नेशनल पार्क। उस एक दिन में सप्ताह भर की ऊब और थकान मिट जाती।

भारतीय संस्कृति का प्रभाव उसके रोम- रोम में रचा- बसा था। अपने नन्हें बेटे का नाम उसने पांडिचेरी के एक शिक्षण संस्थान में जिसकी एक शाखा बैंगलोर में भी थी, करवा दिया। बेटा लगभग तीन साल का था।  उसके नये विद्यालय में नामांकन के पश्चात प्रियसी को यह आभास हुआ। भाषा हम अनुकरण से ही सीखते हैं। पढ़ा तो पहले भी था। उसके बेटे में इसका प्रत्यक्ष दर्शन हो रहा था। 8-10 दिनों में ही वह कन्नड़ के छोटे- छोटे वाक्य बोलना सीख गया था। इस अप्रत्याशित परिणाम को देख कर उस विद्यालय के प्राचार्य ने अभिभावक दंपत्ति को बडे़ आग्रह और सम्मान से बुलाया। वे दोनों वहाँ ससमय गये और गौरवान्वित भी हुए। प्राचार्य ने उस के सामने प्रस्ताव रखा कि आप आएं और मेरे विद्यालय में हिन्दी की शिक्षा दें। वहाँ के विषयों में हिन्दी अनिवार्य विषय था परन्तु हिन्दी जानने समझने वालों की नितांत कमी थी।

थोड़ी झिझक के बाद प्रियसी ने अपनी स्वीकृति भी दे दी। उस के लिए वहाँ की संस्कृति में रचने- बसने का शायद यह प्रथम पाठ ही था।  लेकिन अभी किसी और को भला क्या सिखा पाती वह तो स्वयं एक शिक्षार्थी थी। कन्नड़ सीखने की उत्कट लालसा तो थी ही। इस से अच्छा अवसर और कहाँ मिल सकता था। उसने प्राचार्य से निवेदन किया कि उसे प्रारंभिक कक्षाएं ही दी जाएं ताकि उसे बच्चों की कन्नड़ समझने में और उन्हें हिन्दी समझाने में सहूलियत हो।

प्रियसी का इस नये विद्यालय में आये कुछ ही दिन हुए थे।  नया शहर, नयी भाषा,नये बच्चे, नयी परिस्थितियां। कई तरह की नयी व्यवस्थाएं। स्वयं को साधने के लिए लंबी प्रतीक्षा करनी होगी। एक तो उसे कन्नड़ समझने में अत्यंत कठिनाई होती दूसरी बात यह भी थी कि वे बच्चे हिन्दी नहीं समझ पाते थे।  ज्ञानार्थी और शिक्षार्थी दोनों ही थे। मूक और अनुभवहीन। ऐसी परिस्थिति में दोनों को ही एक दूसरे के संबल की घोर आवश्यकता होती।

विद्यालय आए अभी कुछ ही दिन हुए थे कि एक छोटी सी बच्ची अचानक उसके पास उठ कर आई और उस की साड़ी को बडे़ प्यार से छूते हुए अपनी अटपटी भाषा में कुछ- कुछ बोलना शुरू किया जिसका अर्थ उस ने निकाला- "आपकी साड़ी बहुत सुन्दर है। बिल्कुल ऐसी ही मेरी माँ के पास है। "

उसकी प्यारी- प्यारी मोहक बातें सुनकर प्रियसी अभिभूत हो गई। वैसे भी वहाँ के बच्चे बडे़ ही मनमोहक ढंग से विद्यालय आते।  सभी बच्चियों के बाल उजले या केसरिया पुष्प-गुच्छों से सुसज्जित। माथे पर चंदन का तिलक। नन्हें- नन्हें पांव में नुपूर। । बिल्कुल गौरी कन्याओं की तरह। लड़के भी बिना चंदन लगाए अपने घरों से बाहर नहीं निकलते थे। छोटी बच्चियों की ऐसी मनमोहक छवि। किसी को भी मंत्रमुग्ध कर देने के लिए सहज था। प्रियसी ने उस बच्ची से जिसका नाम 'शर्मिष्ठा' था। पूछा. " वाह बहुत सुन्दर। तुम्हारी माँ तो बहुत सुन्दर होगी। है ना। "

" हाँ। वह बहुत सुन्दर है। जब वह खूब सुन्दर घाघरा पहन के नाचती है ना तो और सुन्दर लगती है। लोग खूब ताली बजाते हैं। बहुत बहुत बहुत। इतना बहुत। मुझे भी नाचना बहुत अच्छा लगता है। "

" अच्छा। "

फिर तो वह उस छोटे से वर्ग में ही गोल- गोल नाचने लगी। दक्षिण भारत के लोग अतिशय संस्कृति प्रेमी होते हैं उसने देखा था और सुना भी था। उसने अनुमान लगाया कि शर्मिष्ठा की माँ जरूर किसी शास्त्रीय नृत्य में पारंगत होगी और अपनी प्रस्तुतियां देती होगी।

उसने शर्मिष्ठा की माँ से मिलने का निश्चय किया लेकिन उसे बहुत आश्चर्य हुआ। जब उसका पता पूछने पर कुछ शिक्षकों ने तो ऐसे ही टाल दिया और कुछ ने बताया भी तो वहाँ जाने की सलाह नहीं दी।  उस के लिए यह बड़े आश्चर्य की बात है।  उसके भीतर की जिज्ञासा शांत नहीं हुई लेकिन वह करे भी तो क्या।

शर्मिष्ठा बहुत निश्छल बच्ची थी। टिफिन के समय खूब उछलती कूदती लेकिन कक्षा से बाहर कभी नहीं जाती। बाकी बच्चे बाहर खेलने के लिए उसे बुलाते भी। लेकिन शायद खेलना उसकी जीवन शैली का हिस्सा नहीं था।  जब टिफिन उस से नहीं खुलता वह कूदती हुई प्रियसी के पास आती।  टिफिन खुलते ही उसका किलकना शुरू हो जाता। कभी इडली, कभी डोसे, कभी चित्रन्ना, कभी पुलियोगेरे,कभी बिसीबेडे़ भात। इतने व्यंजनों के नाम तो प्रियसी भी नहीं जानती थी।

" मेरी अक्का बहुत अच्छा उत्पम बनाती थी। "

" तो अब क्यों नहीं बनाती। "

" वो तो चली गई मैसूर। नाचती है ना। अब कभी नहीं आएगी। "

फिर वह रुंआसी हो गई। कुछ देर चुप बैठी रही। फिर उसका चपड़- चपड़ शुरू हो गया। सारे बच्चों से शर्मिष्ठा बिल्कुल अलग थी। चुप बैठना तो उसने सीखा ही नहीं था।

विद्यालय के वार्षिकोत्सव में शर्मिष्ठा को शास्त्रीय नृत्य की बहुत बड़ी जिम्मेदारी दी गई।  पहले तो इस नन्हीं बच्ची के लिए विद्यालय प्रबंधन तैयार ही नहीं था लेकिन प्रियसी के विशेष आग्रह पर सब ने उस प्रस्ताव को मान लिया। शर्मिष्ठा को कोई शिक्षक भला क्या सिखा पाता।  वह तो जन्मजात इस क्षेत्र में पारंगत थी। अपने समक्ष एक नन्हीं बच्ची के शास्त्रीय नृत्य एवं संगीत की अविराम प्रस्तुति का भावविभोर कर देने वाला अभिराम दर्शन और श्रवण अपने आप में प्रियसी के लिए विलक्षण अनुभूति थी। देह का विदेह हो जाने की इस से सुन्दर परिभाषा और क्या हो सकती थी। इस अनंत असीम यात्रा के अतिरिक्त जीवन का अन्य कोई उद्देश्य भी कहीं हो सकता है क्या। । अविस्मरणीय, अकल्पनीय, निर्बंध, विमुक्त।

लेकिन आश्चर्य और विडंबना की बात थी। जिस कला और कलाकार के उत्कृष्ट प्रदर्शन से प्रियसी अभिभूत थी अन्य शिक्षकों के लिए शर्मिष्ठा और उसकी कला मात्र एक मनोरंजन का साधन- भर थी।

कक्षा एक की नन्हीं बच्ची की निश्छलता क्या होती है किसी ने यह गौर ही नहीं किया। मैंने यह अनुभव किया जैसे- जैसे शर्मिष्ठा अपनी अगली कक्षाओं में बढ़ती गई उसमें गंभीरता आती गई। चहकने- किलकने- फुदकने वाली बच्ची अब ठहर-सी गई। जैसे झरनों से उछलने वाली नदी मैदानी क्षेत्र में आकर थोड़ी धीमी हो जाती है। शर्मिष्ठा को समय से पूर्व ही अपने नारित्व का गुमान होने लगा था और गुरूर भी। अन्य बच्चों के साथ तो वह पहले भी नहीं खेलती थी।  उसका यह अनोखा परिवर्तन प्रियसी को अंदर से बहुत भयभीत कर देता क्योंकि शर्मिष्ठा अपनी बातें अब किसी से सांझा नहीं करती, प्रियसी से भी नहीं। विद्यालय पहुंचाने और छुट्टियों के बाद ले जाने के लिए एक व्यक्ति आया करता जिसे वह रिश्ते का मामा बताती थी। शर्मिष्ठा को अब अपनी माँ की बातें भी बताने या सुनने में कोई रूचि नहीं रह गई थी। गर्मी की छुट्टियों में सभी अपने- अपने घर चले गए। प्रियसी भी बेटे को लेकरअपने गाँव चली गई जिसकी उसे पूरे वर्ष प्रतीक्षा रहती।

छुट्टियों के बाद जब वह विद्यालय आई तो शर्मिष्ठा उसे दिखाई नहीं दी।  उसे लगा लंबी छुट्टियों में वह कहीं घूमने गयी होगी।  पर महीनों बाद शर्मिष्ठा नहीं लौटी तो उसे चिंता हुई। कई सूत्रों से उसने खोज खबर ली।  पता चला उसकी माँ शर्मिष्ठा को लेकर हमेशा के लिए मैसूर चली गई। शर्मिष्ठा की माँ से मिलने की उसकी उत्कट इच्छा हर बार की तरह इस बार भी अधूरी रह गई।

शर्मिष्ठा आंचल के सुगंधित पुष्पों की तरह बाहें फैलाए प्रियसी के जीवन में आई और मुठ्ठी की रेत की तरह फिसलती चली गई। प्रियसी कभी इस मानसिक पीड़ा से उबर नहीं पाई। काश! वह उस बच्ची के लिए कुछ कर पाती। फिर से लौटा लेती उसकी निश्छलता, उसके हृदय की मद्धिम थाप, उसके पांवों के नुपूर। जीवन भर उससे मनुहार करना चाहती है- लौट आओ शर्मिष्ठा...

इनपुट सोर्स : डॉ शिप्रा मिश्रा, वरिष्ठ लेखिका एव एडमिन फोकस साहित्य।