एक थी गीता...

एक थी गीता...

फीचर्स डेस्क। गीता को इंटर पास करते-करते यह लगने लगा था कि उसमें मॉडलिंग से लेकर कंप्यूटर साइंस तक में शिखर पर पहुंचने की काफी संभावनाएं हैं और ढेर सारे अवसर उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। यद्यपि वह मानती थी कि उसका जन्म एक छोटे परिवार में हुआ है और उसे वह माहौल नहीं मिला जिसकी वह हकदार थी। उसके आसपास के लोग पुराने ख्यालों के पिछड़े हुए लोग हैं। वह यह मानती थी कि वह समय को पहचानती है और उसमे समय के साथ चलने की क्षमता है और काबिलियत भी । उसने अपने सपनों को बड़ी सूझबूझ से बुना है।

यह सपनों का सौभाग्य है कि उसने इस तरह के सपने देखे हैं। जिनको हर हालत में पूरा तो होना ही है। उसे तो किसी मेट्रोपोलियन शहर में पैदा होना चाहिए था जहां उस जैसी लड़की के लिए अवसर भी है और पहचान भी।

चैनलों के रुपहले परदे एवं फैशन के बारीक अध्ययन से वह इस मर्म को समझ चुकी थी कि योग्यता और प्रतिभा को अब कहीं भी दबाया नहीं जा सकता बशर्ते उसे लगातार अपडेट किया जाता रहे। वह फैशन परेड की टॉप मॉडलो और फिल्मी नायिकाओं का बहुत ही बारीकी से अध्ययन करती और उनकी विशेषताओं को अपने बोलचाल व रहन-सहन में उतारती। यहां तक कि वह उन्हीं की तरह सोचने की भी कोशिश करती। वह अपने 'बारीक अध्ययन' से फिल्मी नायक नायिकाओं की आदतों एवं पसंद को भी लगभग लगभग आत्मसात कर चुकी थी।

वह अपने छरहरे बदन व नाजुक शरीर तथा बात बतकही के ढंग से इस बात पर आश्वस्त हो चुकी थी कि उसके इन क्षेत्रों में मात्र उतरने भर की देर है, सफलता उसके कदम चूमेगी । उसके लिए संसार संभावनाओं का क्षेत्र था। उसकी समस्या केवल संभावनाओं के चयन करने की है। पिता भले ही बैंक में मामूली से चपरासी थे लेकिन वह तमाम 'ऐसे आदर्शो को जानती थी जो छोटे परिवारों' में जन्म लेकर बहुत आगे बढ़े थे और फिर बहुत नाम कमाया था। वह जानबूझकर अपने आसपास के माहौल से अनजान बनने की पूरी कोशिश करती। वह किसी ऐसे ज्ञान को अपने मस्तिष्क में नहीं रखना चाहती थी जो उसके उत्तर आधुनिकता में सहायक ना होते हों। वह अपने बाबा तक के नाम की जानकारी ना होने पर गर्व महसूस करती यद्यपि उसे फिल्मी कलाकारों के परिवारिक पृष्टिभूमि की पूरी जानकारी होती और वह इन 'सामान्य ज्ञान से परिपूर्ण' लड़के लड़कियों से इन सब पर लंबी तुलनात्मक चर्चा करने को इच्छुक भी रहती।

जैसा कि अक्सर होता है संभावनाओं की तलाश में संभावनाएं खत्म होती जाती हैं। वैसा ही गीता के भी साथ हुआ। तमाम अवसर जो उसका इंतजार कर रहे थे ना जाने कहां गुम हो गए। साल दर साल गुजरते जाते लेकिन कहीं कुछ होता दिखाई ना देता।

सब कुछ देखते देखते बीत गया। वे सपने जिन्हें बड़ी मुश्किल और जतन से गढ़ा गया था साकार नहीं हो पाए। लेकिन फिर भी गीता को लगता कि एकाएक कोई चमत्कार होगा कोई उसकी प्रतिभा को पहचान लेगा और वह बुलंदियों को छू जाएगी । लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा था और ना ही ऐसा होने की कोई संभावना दिख रही थी।

अंततः वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था। या यूं कहें वही हुआ जो अक्सर होता रहा है । बाइस तक आते आते उसकी 'महत्वाकांक्षाओं की बरसी' कर दी गई अर्थात उसकी शादी हो गई।

अब वह कुमारी गीता से श्रीमती गीता हो गई। श्रीमती गीता पत्नी राजेश कुमार। राजेश पिता की पेंशन पर पलने वाला पिता का आज्ञाकारी पुत्र। चार छः प्रतियोगी परीक्षाओं का फार्म भरने के बाद उसने स्वयं अपने को नौकरियों की प्रतिस्पर्धा से अलग कर लिया था और समय रहते ही जमीनी हकीकत को समझते हुए पिता के सुझाव पर घर के सामने के कमरे में रोजमर्रा के काम आने वाले समान की दुकान खोल कर बैठ गया। पिता ने अपनी जिंदगी भर की कमाई का बड़ा हिस्सा इस काम में लगाया।

लेकिन यहां भी वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था। या यूं कहें जैसा कि ऐसे लोगों के साथ होता है वही हुआ।

दुकान तो थी । लेकिन दुकानदारी नही थी। इक्का दुक्का ग्राहक भूले भटके ही दिखाई देते थे वह भी दस बीस रुपए का सामान खरीदने वाले। अब श्रीमती गीता एक पिता के आज्ञाकारी पुत्र की पत्नी थी जो पेंशनजीवी पिता का परजीवी पुत्र था।

श्रीमती गीता कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता कहीं जमीन तो कहीं आसमान नहीं मिलता से भी परे थी उन्हें ना तू जमी मिली और ना ही आसमा मिला। आर्थिक स्थिति के साथ-साथ और भी परेशानियां थी जिन को स्वीकार कर पाना बड़ा ही कठिन था राजेश ना तो रोमांटिक था ना ही प्रतिभाशाली था। ना ही उसमे वह स्मार्टनेस थी जो स्कूल कॉलेज के लड़कों में अक्सर दिखाई देती है। वह राजेश में ऐसा कुछ भी नहीं पाती थी जो किसी कोने से उसे संतोष दे सके।

घर में हमेशा एक अजीब सा सन्नाटा छाया रहा था। जिसमें आर्थिक तंगी एक साथ साथ घुटते हुए सपने साफ-साफ सुनाई पड़ते थे। आसमान में शून्य की तरफ देखते हुए पिता। सर झुकाए हुए हताश निराश पति । छोटी छोटी चीजों को जतन से सहेजती हुई सास ।

और उन सब में खोई खोई अपनी किस्मत के साथ साथ सबको कोसती हुई गीता।

गीता की जिंदगी में कहीं कुछ नहीं हो सका। बड़ी शिद्दत से सजाए हुए सपने । सीखे गए आचार व्यवहार। तमाम जानकारियां। सब कुछ निरर्थक सी हो गई । सपने देखते देखते ही उन पर फुल स्टॉप लग गया। शायद सपने भविष्य में घुट घुट कर जीने के लिए ही देखे जाते हैं।

गीता अक्सर सोचती....

उसे ही ऐसा घर क्यों मिला? जहां न तो सुख सुविधाएं हैं और ना ही आगे बढ़ने के अवसर। जहां उसके इमोशंस और फीलिंग को कोई समझता तक नहीं।

वे लोग उसे क्या समझेंगे ? समझने के लिए भी एक स्तर चाहिए।

यहां उसके उन गुणों की रत्ती भर कदर नहीं है जिसके लिए बड़े बड़े लालायित रहते हैं।

जिंदगी में कुछ और ना मिला था ना सही।

कम से कम एक अपने ढंग की ज़िंदगी तो जी जा सकती है। यहां तो हर जगह नियंत्रण। लोग क्या कहेंगे। हम लोगों के यहां ऐसा कभी नहीं हुआ। यह ठीक वह ठीक नहीं। हर बात में समाज क्या कहेगा ।

जैसे सारा समाज इन्हीं को देख रहा है। चार लोग तक नहीं जानते । फिर भी हर जगह समाज समाज की रट लगाए रहते हैं।

तमाम थोपी गई मर्यादाओं के भीतर उसे और भी अमर्यादित होने का मन करता।

ऐसा उसी के साथ क्यों हुआ ?सामान्य सा कद काठी का थोड़े में ही संतुष्ट हो जाने वाला दुर्बल मनो वृत्त का पराजित सा पति उसे ही क्यों मिला? परंपराओं से जकड़े हुए लोग उसे ही क्यों मिले। सारी प्रतिकूलताएं उसी के साथ क्यों हो रही है।

क्या-क्या सोचा था लेकिन हुआ क्या क्या। अभी उसे जिंदगी से और कितने समझौते करने पड़ेंगे । गीता ऐसे प्रश्नों का उत्तर खोजते खोजते ना जाने कितने और प्रश्नों को जन्म देती। हर प्रश्न, प्रश्नों का एक सिलसिला पैदा करता और अनुत्तरित प्रश्नों की संख्या बढ़ती जाती। कभी-कभी वह विकल्पों की तलाश करती। " लेकिन यहां तो एक से बेकार किस्म के लोग थे जिनको न तो कोई तमीज थी ना ही कोई स्तर"

इससे अच्छा तो राजेश ही है। सब आउटडेटेड हैं । ऐसे में ही कोई ढंग का होता तो भी कोई बात होती।

कम-से-कम "हैपीनेस" की कभी-कभार कुछ तो गुंजाइश बनी ही रहती । काश ऐसा ही कुछ होता तो भी ...जिंदगी कुछ तो खुशनुमा बनी रहती। परिवेश की असंतुष्टि गीता के आंखों में साफ दिखती और यह भाव उसकी आंखों को और मादक बनाता। उसके नयन नक्श में तीखापन आ गया था जो गैरों को तो आकर्षित करती लेकिन अपनों को दूर रखती।

कहते हैं ... जिसे किसी से प्यार नहीं होता जीवन में कभी बेहतरी की उम्मीद नहीं होती और जिसे अपने परिवेश में घुटन महसूस होती वे आत्महत्या के संभावित शिकार होते हैं। गीता पर यह सारी बातें लागू होती थी।

ऐसा नहीं कि गीता से किसी को प्रेम नहीं था या उसके जीवन में बेहतरी की गुंजाइश बाकी नहीं थी। राजेश को गीता जैसी पत्नी मिलने का संतोष था। जो देखने सुनने में ठीक थी। अच्छी थी। अभी तो जीवन की शुरुआत थी। आगे के दिन अच्छे भी हो सकते थे ।

फिर मनुष्य की प्रवृत्ति हमेशा एक सी नहीं रहती। सुख संतोष के मापदंड बदलते रहते हैं। लेकिन गीता में ना तो इतना धैर्य था और ना ही इतनी समझ थी। वह तो हड़बड़ी में थी। उसने बहुत ही जल्दी अपने को पराजित मान लिया था। अंततः वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था। एक दिन सुबह-सुबह गीता ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली।

आत्महत्या या दहेज हत्या।

सरकार और मीडिया ने इसे दहेज हत्या ही माना। दहेज की बेदी पर एक और बलि। अखबारों ने छापा।

वृद्ध माता-पिता सहित राजेश को अभी बहुत कुछ देखना बाकी था। गीता वह सब इंतजाम करके दुनिया से जा चुकी थीं। तीनों दूसरे दिन ही जेल भेजे गए। जमानत का प्रश्न ही नहीं था। सभी धाराएं लगाई गई थी।

गीता शरीर छोड़कर मरी थी । वे लोग सशरीर मृत्यु से भी बदतर हो गए थे। तीनों शून्य में निहारते रहते।

जेल की कोठरियों में टूटे-फूटे प्लास्टरों में विभिन्न आकृतियों को बनाते रहते। तीनों हतप्रभ थे। ये क्या हो गया। क्या क्या सोचा था और क्या क्या हो गया । कहने को तीनों पति पत्नी पुत्र थे जिन्होंने " दहेज के लिए बहू की हत्या की थी"। लेकिन वास्तव में ये वे थे जिन्हें घर की बहू ने स्वयं को मारकर इन्हें धीमी आंच में आजीवन चलने के लिए छोड़ दिया था। गीता की आत्महत्या और तीनों की हत्या से भी बदतर स्थिति के लिए वास्तव में दोषी किसको माना जाए। शायद दोषी और लोग हैं जो इस कथा क्रम में कहीं नहीं दिखते।

 इनपुट सोर्स : राजेंद्र कुमार पाण्डेय