कुम्हार...
स्वेद बिंदु से पोषित कर ,आंच पर जांचता,परखता हूं,कोयले की खदान से हीरे की खेप निकालता हूं। कभी कभी अपना हीं बचपन .....
फीचर्स डेस्क। अंधेरे में उजास गढ़ता हूं । काले,भूरे,पीले,लाल कैसे भी हों मिट्टी के रंग ,आकार देता हूं। मैं शुभता का संवाहक हूं ,कलश के बिना अधूरा हैशुभ कार्य ,प्रत्येक मंदिर में सुशोभित घट को आकार देता हूं।
स्वेद बिंदु से पोषित कर ,आंच पर जांचता,परखता हूं,कोयले की खदान से हीरे की खेप निकालता हूं। कभी कभी अपना हीं बचपन याद करता हूं।
जब अपने बाप,दादा के पीछे छुपकर जाता था मिट्टी के घरों में ,मिट्टी के दिये ,घंटियां,तमाम तरह के खिलौने टोकरों में भरकर देने के लिये। तब मन मोम सा और दिल मिट्टी के लौंदें जैसा नरम मुलायम था।
हजारों दिये पलक झपकते अनाज और गुड़ की मीठी डली पर हंसीखुशी से बिक जाते थे,कोई मोलचाल नहीं , ना हीं कोई तकरार,बस जुबान की मिठास ,एक बूंद खुशी की आज भी ऑंखों के कोरों में ठिठकी है।सबकुछ राजीखुशी है ,लेकिन कुछ है जो पीछे रह गया है,गाहे-बगाहे टीस उभरतीहै।
हां ! मैं आज भी हथेलियों से नये रंग भरता हूं रंग - बिरंगी ओढ़नी ओढ़े, पनिहारिनों के चेहरे पर लाज भरी मुस्कान भरता हूं। मै मिट्टी के मटके में हृदय की प्यास गढ़ता हूं ,बाज़ार में बैठा पानी के खरीददार ढूंढता हूं।
इनपुट सोर्स - डॉ. मंजुला चौधरी ,मेंबर फोकस साहित्य ग्रुप