"मूंगफली के दाने"

फिर तो शेफाली की रोज की आदत सी हो गई। उसके पास जाना कुछ बातें करना। कभी कभी वह अपने ग्राहकों के साथ उलझा रहता। उसे लगता अभी इसे परेशान करना सही नहीं...

"मूंगफली के दाने"

फीचर्स डेस्क। वह शहर की एक मुख्य सड़क ही थी। एक तरफ डी एम कोठी,एस पी कोठी,सर्किट हाउस, एक छोटा चर्च,भव्य और ऐतिहासिक दुर्गा मंदिर तो दूसरी तरफ शहर का प्राचीन ऐतिहासिक महाविद्यालय और उसका विशाल प्रांगण। शायद इतना काफ़ी है यह बताने के लिए कि उस रास्ते से सभी गणमान्य और चर्चित महानुभावों का आना- जाना लगा ही रहता है। लगभग रोज ही शेफाली उस रास्ते से गुजरती।  उसका कार्य क्षेत्र उस रास्ते से गुजरे बिना पूरा ही नहीं हो सकता था।

एक समय था कि इस रास्ते पर इक्का दुक्का लोग ही दिखाई पड़ते थे।  लेकिन आज ऐसे हालात हैं कि इसे पार करने के लिए कुछ देर का इंतज़ार ही सही,करना पड़ता था। उत्तरी बिहार का सर्दियों में शीतलहर का सामना करना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं थी। महीनों इस शीतलहर का असर रहता। । स्थिति तब और बदतर हो जाती जब इतनी कंपकंपाती ठंड में बारिश का कहर भी शुरू हो जाता।

ऐसे हालात में सबके भाव बढ़ जाते। फल- सब्जियों से लेकर रिक्शे, ऑटो वालों की भी। ।  और बढ़े भी क्यों ना। बर्फ की बूंदों जैसी बारिश को झेलना मौत को दावत देने जैसा ही तो था। जैसे- तैसे एक रिक्शा वाला घर चलने को तैयार हुआ। दूसरा तो कोई दिखा भी नहीं। रिक्शे को चारों तरफ़ से प्लास्टिक से घेर देने से बारिश से थोड़ी राहत जरूर मिल रही थी। लेकिन फिर भी शरीर का ऊपरी हिस्सा ही मुश्किल से बच पा रहा था। उन्मत्त ठंडी हवा को बारिश के झोंकों का साथ। बार-बार उस पुराने जर्जर प्लास्टिक को उड़ा देने की अथक साज़िश। कौन बच पाता भला। बर्फ जैसे छींटों से बचने के लिए अपने छाते को उसने दूसरी ओर से लगाया। तब जाकर थोड़ी राहत मिली। जब स्वयं के अस्तित्व को सुरक्षा मिल जाती है उसके बाद ही हमारी नजर आसपास भी ताकझांक करना शुरू करती है। जब स्वयं का ही कोई ठिकाना नहीं तो पर उपदेश भी नहीं शोभता।  

उसने भीतर से झांक कर देखा। रिक्शा वाला बहुत बूढ़ा लग रहा था। तन पर एक फटा स्वेटर, वह भी भींगा हुआ। पांव में कोई चप्पल जूता भी नहीं। रिक्शा चलाते समय उसके सिर के ऊपर का प्लास्टिक उसे ढंकने में किसी तरह भी समर्थ नहीं था। जब स्वयं की जान बची तो उपदेशों की बौछार होना लाजिमी ही था।

" क्यों चलाते हो रिक्शा। तुमसे तो रिक्शा चलाया भी नहीं जा रहा। इतना कमाते हो और  अपना इंतजाम भी नहीं रख सकते। घर में रहा करो। आराम करने की उम्र है तुम्हारी। "

"नहीं चलता तो आप घर कैसे जाते सर जी"

" ये बात तो ठीक कही तुम ने पर ऐसा अत्याचार मत करो अपने साथ। । कुछ और काम ढूंढ लो। "

" घर में सब हैं सर जी। पर कोई नहीं खिलाता। घरवाली कुछ दिन पहले गुजर गई। अपने कमाते हैं। बनाते-खाते हैं "

उस भयानक बर्फीली बारिश में बातों का सिलसिला यूँ न चलता तो रास्ता काटना मुश्किल हो जाता। स्वेटर जैकेट टोपी मफलर पहने रहने के बाद भी देह की कनकनी जा नहीं रही थी। । आपस में बातें करते दोनों मुख्य सड़क पर आ गए थे। उस आफत की घड़ी में सड़क बिल्कुल सुनसान वीरान नज़र आ रही थी। फिर भी किस्मत के मारे कुछ अभागे दिख ही जा रहे थे।

कई दिनों से कुछ फेरीवालों को भी उस ने देखा था जो सड़क के दोनों तरफ अपना-अपना सामान लेकर बैठ जाया करते थे। फल- सब्जियां लेकर या बाहर के प्रांतों से आए कुछ मूंगफली बेचने वाले। लेकिन इस आफत में भला कौन टिकता। उसने रिक्शे के भीतर से ही दोनों तरफ झांक कर देखने की असफल कोशिश की। शायद कुछ मिल जाए।   फल- सब्जियां पर कुछ न दिखा। दिखा तो एक छोटा बच्चा।   मूंगफलियां बेचता हुआ। मुश्किल से उसकी उम्र 8-10 वर्ष की रही होगी। ।  एक अकेला प्लास्टिक के अधखुले टेंट के नीचे। उसके आसपास कोई और था भी नहीं। शेफाली का हृदय विचलित हो उठा। उसके मन में बार-बार अपने बच्चों का ख्याल आने लगा। कैसा निर्दयी है विधाता तू भी। तेरी एक संतान निर्वासित, निराश्रित।

उसे मूंगफली लेने की कोई इच्छा नहीं थी। लेकिन अपनी जिज्ञासा को रोकने में उसे असमर्थता महसूस हुई। रिक्शे वाले से कहा  " थोड़ी देर के लिए रोकोगे क्या।  "

" सर जी हम भी बहुत भींग गए हैं। आप को घर तक पहुँचा दें उसके बाद हम भी घर जाएंगे। सुबह से कुछ कमाई- धमाई नहीं हुई है।   आप पैसा देंगे तो हम सतुआ खाएंगे, हमें भूख लगी है"

शेफाली ने प्रतिकार करना उचित नहीं समझा घर पहुंच कर रिक्शे वाले को थोड़ी देर रुकने का इशारा किया। बेटे के कुछ पुराने गर्म कपड़े पड़े थे और जूते भी जो भी तत्काल उसे मिल सका लाकर रिक्शे वाले को दिया। किराए के अतिरिक्त कुछ और पैसे भी दिये। " ले जाओ और अब से मुझे रोज घर छोड़ दिया करना। कल से मैं तुम्हारा इंतजार करूँगी ।"

सामने जो दृश्य था उसे शब्दों में उतार पाना किसी के लिए असंभव सा है। बिना कुछ कहे वह बूढ़ा व्यक्ति निरंतर रोए जा रहा था। अपने भींगे हुए गमछे से उन आंसुओं को पोंछ डालने की निरर्थक कोशिश। वह बुरी तरह कांप भी रहा था। शेफाली ने उस से कहा-"कुछ देर यहाँ बैठ जाओ।  अपने भींगे कपड़े बदल लो।  मैं चाय लाती हूँ। पी लो फिर घर चले जाना। कोई भी जरूरत होगी मुझसे जरूर बता दिया करना। "

चाय और बिस्किट खाकर निश्चिन्त मन से वह घर चला गया।  शेफाली के लिए वह पल हमेशा के लिए अविस्मरणीय बन कर रह गया।  अगले दिन रिक्शा वाला अपने समय से उपस्थित था। मुस्कुराते हुए,  प्रसन्न मुद्रा में फिर पूरे रास्ते बातों का सिलसिला। शेफाली ने उस से कहा कि वह रिक्शा चलाना छोड़ दे। कुछ और काम ढूंढ ले। मैं उसे पैसे दूंगी। बाद में शेफाली के आग्रह पर उसने ठेले पर एक सत्तू की दुकान खोल ली। कभी- कभी सत्तू लेकर हाज़िर भी हो जाता है। साथ में बार-बार मनुहार भी करता "अपने हाथ से बनाए हैं सर जी कोई मिलावट नहीं है और खूब ठहाके लगा कर हंसता शेफाली को मालूम था उसकी निर्झर- सी हंसी में बच्चों के लिए ढेर सारी दुआएँ और बरक्कत होती थीं। अगले दिन शेफाली ने उस मूंगफली बेचने वाले बच्चे से मिलने का निश्चय किया। मिट्टी में गड़ी हुई एक बड़ी हांडी में वह छिलके वाली मूंगफलियां भून रहा था।   

"कैसे दे रहे हो मूंगफली। "

" तीस रुपये पाव माए जी"

"अच्छा। नाम क्या है रे तेरा। "

" शाहरुख " कहते कहते वह खिलखिला के हंस पड़ा।

" तू तो बिल्कुल हीरो है रे। कहाँ रहता है "

"वो भैया है ना उसी के साथ डेरा में। "

" किस गाँव से आया है रे"

"उपी से। आजमगढ़ जिले में है हमारा गाँव"

फिर तो शेफाली की रोज की आदत सी हो गई। उसके पास जाना कुछ बातें करना। कभी कभी वह अपने ग्राहकों के साथ उलझा रहता। उसे लगता अभी इसे परेशान करना सही नहीं। एक बार देख कर वह आगे बढ़ जाती। पीछे से खिलखिला कर वह दूर से ही बोलता। "नमस्ते माए जी" मुस्कुराते हुए सिर हिला कर शेफाली आगे बढ़ जाती इस प्रतीक्षा और उम्मीद में कि इस मुख्य सड़क पर कभी तो किसी की नज़र उस मासूम बच्चे पर पड़ जाए। न जाने कितनी रैलियां और प्रभात फेरी उस रास्ते से गुजरती हैं। लंबे- लंबे भाषण, बड़े- बडे़ वादे। बालश्रम को जड़ से मिटा डालने के झूठे दावे।  

एक दिन शेफाली को न जाने क्या मसखरी सूझी, बच्चे से कहा-" मैंने तुझे सौ रूपये दिए थे। मेरे बाकी पैसे लौटा। "

कुछ देर के लिए तो वह अकबका- सा गया।  आश्चर्य से आसमान की ओर ताकने लगा। फिर थोड़ा संयत होकर बोला-" पर आप तो दस-दस के नोट दिये थे तीन पाव भर मूंगफली भी लिये तो फिर सौ रूपये कहाँ से हुआ माए जी। "

फिर वह फूलों-सा खिलखिला कर हंस पड़ा। उसके दांत मोतियों- से झिलमिला उठे।

" तो तुझे गिनती आती है। मतलब पढ़- लिख सकता है। "

"कहाँ माए जी। मैं कभी स्कूल नहीं गया। "

" ये तो बहुत गलत बात है। तू पढ़ता क्यों नहीं। "

" ओ मेरा बाप नहीं है ना। सात- आठ भाई- बहन हैं। अम्मा दूसरे के खेत में काम करती है। कुछ करजा हो गया है "

" लेकिन सरकार इतनी सुविधा दे रही है। पढ़ोगे नहीं तो जिन्दगी तो बेकार हो जाएगी। "

" हम पढ़ने जाएंगे तो रुपये कौन कमाएगा। हम ऐसे ही ठीक है माए जी। उस झंझट में कौन पड़े। "

" अच्छा तू मेरे घर आ जा। मैं पढ़ा दूंगी। "

" वो भैया मुझे जाने नहीं देगा। आठ बजे तक यहाँ रहते हैं। फिर सब डेरा जाते हैं।  साथ मिलकर खाना बनाते हैं। बरतन धोते हैं। नहीं, हम नहीं जाएंगे आपके घर।  "

फिर तय हुआ कि वह सुबह अपना सारा काम जल्दी खत्म करेगा और शेफाली के पास आकर थोड़ी देर ही सही पढ़ेगा जरूर। गाँव से साथ आये भैया को भी उसने मना लिया। यह सिलसिला एक- दो महीने ही चल पाया। एक दिन मालूम हुआ कि उसकी माँ बीमार है जिसके लिए उसका गाँव जाना जरूरी है। दो- चार दिनों में उसका वापस अपने गाँव लौट जाना निश्चित था। जाने से पहले वह शेफाली से मिलने  आया।  विदा होते समय उसकी आँखें बरबस छलक आईं " माए जी अपना नंबर दो हमको, हम बात करेंगे तुम से तुम बहुत अच्छी हो माए जी। " कह कर अचानक एक छोटे बच्चे की तरह सुबकते हुए शेफाली से लिपट गया था वह।  

कुछ नये-पुराने कपड़े,चप्पल- जूते,स्कूल बैग, कुछ किताबें जो शेफाली के पास पड़े हुए थे, एक थैले में भर कर उस बच्चे को दिया। उसकाे दुलार किया। पीठ थपथपाई। कुछ पैसे, कुछ रेवड़ियां और कुछ मूंगफली के दानों से उस छोटे बच्चे की छोटी हथेलियां भर-भर गई। ।

इस बात को बीते वर्षों हो गये। आज वह मायूस, मासूम बच्चा नौजवान बन चुका है। कभी- कभी शेफाली को फोन भी करता है। अपनी बातें, गाँव- नगर की बातें। उसकी माँ कुछ दिनों बाद  गुजर गई थी। स्कूल वह कभी जा नहीं पाया। 'माए जी' की कृपा से थोड़ा बहुत काम लायक पढ़- लिख लेता है। जिस के लिए वह आज भी शेफाली को बार-बार धन्यवाद कहता है। अपने भाई- बहनों को सरकारी स्कूल में भेजता है।  अब वह खोमचे वालों का सरदार हो गया है। शेफाली को इस बात की कसक आज भी है। काश! उस बच्चे को पढ़ने का हक मिला होता।  

इनपुट सोर्स : डॉ शिप्रा मिश्रा, वरिष्ठ लेखिका एव एडमिन फोकस साहित्य।