माता पार्वती ने अपने ही पुत्र कार्तिकेय को क्यों दिया था श्राप ?

माता पार्वती ने अपने ही पुत्र कार्तिकेय को क्यों दिया था श्राप ?

फीचर्स डेस्क। हिन्दू धर्म से जुड़ा वृहद पौराणिक अतीत अपने आप में बेहद रहस्यमय और अद्भुत है। मनुष्य के रूप में जन्म लेने वाला किन कारणों से भगवान की उपाधि पा जाता है, यह अपने आप में अलौकिक है। असुरों के संहार और धरती पर पनप रही बुराई का सर्वनाश करने के लिए कई देवताओं ने जन्म लिया था। इन्हीं देवताओं में से एक थे शिव और पार्वती के पुत्र कार्तिकेय। पुराणों में वर्णित कार्तिकेय के जन्म की कथा के अनुसार पिता दक्ष द्वारा किए गए अपने पति भगवान शिव के अपमान से क्रोधित सती, दक्ष द्वारा संचालित यज्ञ की अग्नि में ही आत्मदाह कर लेती हैं। सती की मृत्यु के पश्चात जहां एक तरफ सृष्टि शक्तिविहीन हो जाती है वहीं भगवान शिव भी हिमालय जाकर तप करने लगते हैं। वे सभी बंधनों और ब्रह्मांड के सभी दायित्वों को त्यागकर हिमालय जाकर तप करने लगते हैं। उमा या पार्वती के रूप में सती पहाड़ों के राजा हिमावन की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं। इसी दौरान पृथ्वी पर सूरपद्म का आतंक अपने चरम पर पहुंच चुका था। वह पृथ्वी के अलावा स्वर्ग में बैठे देवताओं के लिए भी दहशत बनता जा रहा था। तारकासुर को यह वरदान प्राप्त था कि शिव और पार्वती की संतान ही उसका विनाश कर सकती है। लेकिन शिव तो पहसे ही मोह के बंधन से मुक्त होकर हिमालय पर तपस्या करने चले गए थे। ऐसे में पार्वती के लिए उनके मन में आकर्षण विकसित करना एक कठिन कार्य था।

इस समस्या का अंत करने के लिए देवताओं ने कामदेव की सहायता लेने का निश्चय किया। कामदेव ने अपने बाण से शिव पर फूल फेंका, ताकि उनके मन में पार्वती के लिए प्रेम और कामेक्ष जैसी भावना विकसित हो सके। उस समय शिव ध्यानमग्न थे। कामदेव के बाण की वजह से उनके ध्यान में भंगता आई थी, जिसकी वजह से शिव अत्याधिक क्रोधित हो उठे। उन्होंने अपनी तीसरी आंख से कामदेव को भस्म कर दिया। लेकिन कामदेव की पत्नी रति की प्रार्थना पर उन्होंने कामदेव को शरीर तो दे दिया लेकिन रति के अलावा वह किसी अन्य को नजर नहीं आते थे। कामदेव के बाण की वजह से शिव की तपस्या खंडित हो गई थी, वह खुद को पार्वती के प्रति आकर्षित करने लगे थे। लेकिन शिव के भीतर छिपी क्रोध की ज्वाला अभी तक समाप्त नहीं हुई थी, बल्कि इतनी भयंकर हो गई थी कि स्वयं अग्नि देव भी उसे सहन नहीं कर पा रहे थे। स्वयं गंगा जी इस अग्नि को सरवन तक ले गईं जहां एक धड़ और छ: सिर वाले

‘श्रवण भव’ का जन्म हुआ। ‘श्रवण भव’ को छ: अप्सराओं ने पाला था, पार्वती ने इन छ: सिरों को जोड़कर एक सिर में परिवर्तित किया। इस तरह कार्तिकेय का जन्म हुआ। कार्तिकेय ने आगे चलकर देवताओं की सेना का नेतृत्व कर तारकासुर का नाश किया था। कृत्काओं यानि अप्सराओं ने इन्हें अपना पुत्र बनाया था, इसी कारण इनका नाम 'कार्तिकेय' पड़ा गया। तारकासुर और सूरपद्म का विनाश करने के लिए देवताओं का नेतृत्व करते हुए कार्तिकेय जिस छ: स्थानों पर ठहरे थे वे स्थान तिरुत्तानिकाई, स्वामिमलई, तिरुवाविनानकुडि, पझामुदिरसोलई, तिरुप्पारमकुनरम और तिरुचेनदुर के नाम से प्रचलित हैं। ये सभी प्राचीन मंदिर संगम काल के कवियों द्वारा बहुत ही महिमामंडित किए गए थे।

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एक अन्य कथा के अनुसार भगवान शकंर, सर्वप्रथम पार्वती की परीक्षा ली कि वे उनसे कितना प्रेम करती हैं। जब पार्वती इस परीक्षा में सफल हो गई तब शुभ मुहूर्त पर शिव और पार्वती का विवाह संपन्न हुआ। विवाह के बाद कार्तिकेय का जन्म हुआ जिन्होंने तारकासुर का सर्वनाश(वध) किया। पुराणों के अनुसार षष्ठी तिथि को कार्तिकेय भगवान का जन्म हुआ था, इसलिए इस दिन स्कन्ध यानि कार्तिकेय भगवान की पूजा का भी विशेष महत्व माना गया है। हिन्दू धर्म से संबंधित नही होने के बावजूद यजीदी धर्म के लोग भी शिवपुत्र, कार्तिकेय की आराधना करते हैं। इन्हें दक्षिण भारत में मुरुगन देवता के स्वरूप में पूजा जाता है। विश्व के अन्य देशों जैसे श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर आदि में भी कार्तिकेय को इष्ट देव के रूप में स्वीकार किया गया है।

भगवान स्कंध यानि कार्तिकेय को समर्पित अत्याधिक प्रसिद्ध मंदिर भी दक्षिण भारत के तमिलनाडु में ही स्थित हैं। कार्तिकेय को तमिल देवता भी कहकर संबोधित किया जाता है। इनका विवाह इन्द्र की पुत्री देवसेना और वल्ली के साथ हुआ था। कार्तिकेय को हमेशा एक बालक के रूप में ही दर्शाया जाता है, वे विवाहित हैं, महायोद्धा हैं लेकिन फिर भी उनका स्वरूप एक बालक का ही है क्योंकि उनकी माता पार्वती ने उन्हें एक ऐसा श्राप दे दिया था जिसके बाद वह कभी अपनी बाल्यावस्था को त्याग ही नहीं पाए। उनके इस बालक स्वरूप के पीछे भी एक रहस्यमय कहानी छिपी हुई है।

कहा जाता है कि एक बार शंकर भगवान ने पार्वती के साथ जुआ खेलने की इच्छा प्रकट की। लेकिन इस जुए के खेल में भगवान शंकर हारते ही चले गए और एक समय बाद उनके पास दांव पर लगाने के लिए कुछ नहीं बचा। हारने के बाद भगवान शिव पत्तों के वस्त्र पहनकर गंगा के तट पर चले गए। जब उनके पुत्र कार्तिकेय को इस घटना का पता चला तो वह अपनी मां के पास शिव की हारी हुई वस्तुएं लेने गए। कार्तिकेय ने भी अपनी मां के साथ जुआ खेला लेकिन इस बार पार्वती हारती रहीं। अपनी मां को हराकर कार्तिकेय अपने पिता का सामान लेकर गंगा के तट पर आए। शिव और समस्त वस्तुओं को खोकर पार्वती बेहद निराश हो गईं। उन्होंने अपने दुख का कारण अपने पुत्र गणेश को बताया और वे अपनी मां की समस्या का समाधान करने के लिए स्वमं अपने पिता शिव के पास जुआ खेलने पहुंचे। जुए के खेल में अपने पिता को हराया और सारी वस्तुओं के साथ अपनी मां के पास आ गए। उन्हें देखकर पार्वती बोलीं कि उन्हें अपने पिता को भी साथ लाना चाहिए था। गणेश फिर से अपने पिता की खोज के लिए निकल गए। उन्हें हरिद्वार जाकर शिव के दर्शन हुए। उस समय भगवान शिव, विष्णु और कार्तिकेय गंगा के किनारे भ्रमण कर रहे थे।

भोलेनाथ ने कहा कि अगर पार्वती फिर से एक बार उनके साथ जुआ खेलती हैं तो वे वापस चलने के लिए तैयार हैं। भोलेनाथ के कहने पर विष्णु पासे के रूप में जुए के खेल में शामिल हो गए। गणेश जी ने आश्वासन दिया कि पार्वती उनके साथ अवश्य खेलेंगी। जब गणेश अपने पिता को लेकर पार्वती के पास पहुंचे और उन्हें फिर से एक बार जुआ खेलने के लिए कहा तो पार्वती हंसने लगीं। उहोंने शिव से कहा कि उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे जुए पर दांव पर लगाया जाए

इतने में वहां नारद आ गए जिन्होंने अपनी वीणा और अन्य सामग्री शिव को दे दीं ताकि वे जुआ खेल सकें। जुए का खेल आरम्भ हुआ और पार्वती लगातार हारने लगीं। विष्णु पासे के रूप में शिव के अनुसार चल रहे थे, जिसके परिणामस्वरूप पार्वती को हर बार हार का सामना करना पड़ा। गणेश जी समझ गए कि पासे उनके पिता के अनुसार चल रहे हैं और उन्होंने ये सारा रहस्य अपनी माता को बता दिया। सारी घटना को सुनने के बाद पार्वती क्रोधित हो गईं और सभी को श्राप दे दिया। उन्होंने भोलेनाथ को श्राप दिया कि गंगा की धारा का बोझ हमेशा उनके सिर पर रहेगा। नारद को हमेशा भटकते रहने का श्राप दिया। भगवान विष्णु को यह श्राप दिया कि रावण उनका सबसे बड़ा और ताकतवर शत्रु होगा और साथ ही अपने पुत्र कार्तिकेय को यह श्राप दिया कि वह हमेशा बाल स्वरूप में ही रहेंगे।

ज्योतिषाचार्य एवं हस्तरेखार्विंद पोद्दार, भोपाल।