अजनबीपन...
फीचर्स डेस्क। “हाय अम्मा! मैं आ गया।” तीन वर्षों बाद अमेरिका से लौटे उनके पोते किंशी ने मुस्कुराते हुए उन्हें अपनी बांहों में भरने को बड़ी आतुरता से अपने हाथ आगे बढ़ाए ही थे, कि उनकी आंखों में अपने लिए नितांत अजनबीपन के भाव देख वह बुरी तरह से हिल कर रह गया।
उसे देख हमेशा की तरह अम्मा के चेहरे पर ना तो कोई खुशी छलक़ी, ना ही कोई मुस्कान आई। उनकी आंखों में एक अबूझ वीरानापन था।
उसके मन में अनगिनत प्रश्न कुलबुलाने लगे, ‘यह अम्मा को क्या हुआ? पूरे तीन वर्षों बाद घर लौटा हूँ, और वह यूँ बैठी हैं, जैसे मुझे जानती पहचानती ही नहीं।’
तभी अनायास पिछली वीडियो चैट पर मां के कहे हुए शब्द उसके कानों में गूंजे, “अम्मा को डिमेंशिया की शिकायत हो गई है, और वह धीरे-धीरे हम सबको भूलती जा रही हैं।”
“अम्मा, अम्मा”, उसने उन्हें कंधों से थाम कर झकझोरा, “मैं आपका किंशी। आपका सोना बेटा, आपका सुग्गा बेटा।”
यह सुनकर अम्मा की आंखों में क्षणांश के लिए पहचान की धुंधली रेखा कौंधी, लेकिन अगले ही क्षण वह गायब हो गई।
उसे बेहद ठंडेपन से परे हटाते हुए वह बेहद बेरुखी भरी तुर्शी से चिल्लाई, “अरे मरे, तू कौन है जो मेरे ऊपर चढ़ा आ रहा है? चल दूर हट।”
किंशी के गले में रुलाई उमड़ आई और वह अपने पीछे आती मम्मा के कंधे पकड़ सुबक उठा, “मम्मा, यह अम्मा को क्या हुआ? मुझे तो बिल्कुल पहचान ही नहीं रहीं।”
तभी अम्मा ने उसकी आंखों में बेहद ठंडेपन से झांकते हुए मम्मा से पूछा, “बहू, मेरा किंशा कब आएगा री? मैं मर जाऊंगी तब?”
इनपुट सोर्स : रेणु गुप्ता, वरिष्ठ लेखिका।