लघु कथा: छोटी सी मंज़िल

कुछ दूर तो पूरे जोश में चले जैसे नाहक ही सोच रहे थे, लगा परिक्रमा तो यूं ही खेल खेल में पूरी हो जाएगी। कुछ ही देर में मई के महीने के सूरज देवता अपनी पूरी प्रचण्डता के साथ हमारी परीक्षा लेने लगे....

लघु कथा: छोटी सी मंज़िल

फीचर्स डेस्क। जीवन के हर मोड़ की अलग मंज़िल होती ।कुछ मंज़िल राह थोड़ी छोटी तो कुछ मंज़िल तक पहुँचने की ख़ातिर लम्बी दूरी तय करनी होती है । एक बात तो तय है कि बड़ी मंज़िल के शिखर तक पहुँचने के क्रम में हम हर दिन छोटी छोटी मंज़िल तय कर ही एक दिन शिखर पर पहुँच पाते है। ज़रूरत बस बिना रूके कभी दूसरे का हौसला बढ़ाते कभी दूसरों से प्रेरणा लेते छोटी छोटी मंज़िलों को चढ़ने की होती है । बात बड़ी छोटी और सामान्य सी है पर जब भी किसी काम को करते वक्त थककर कदम पीछे हटाने की सोचते हूं ये घटना आँखों के सामने आ जाती है और मंज़िल की दिशा में बस धीरे धीरे बढ़ जाती हूँ।                                                      

बरसों पुरानी बात है महिर्षी रमन्ना के बारे में थोड़ा बहुत पढ़ा पर सुना अधिक था। संयोगवश मई के महीने में तमिलनाडु जाना हुआ तो सोचा तिरूअन्नामलाई में मंदिर और महिर्षी रमन्ना का आश्रम देखते चले।शाम को आश्रम में समय बड़ा अच्छा बीता सुबह को मंदिर में दर्शन भी अच्छे से किया।मन में अरुणाचल पर्वत की परिक्रमा की इच्छा भी कहीं दबी थी। तब इन्टरनेट गूगल जैसी चीज से मेरा  बटुए समृद्ध ना था कि जानकारी जुटा तैयारी के साथ प्लानिंग कर आगे बढ़ूँ।                                        मन आशंकित था कि तेरह चौदह किलोमीटर पैदल चल पाऊँगी कि नही।मंदिर के आसपास लोगों से जानकारी ईकट्ठा कर रही थी कि एक बुजुर्ग जो शायद मेरी आशंकाओं को भाप गए थे ने कहा कभी मैं हर छुट्टी के दिन अरुणाचल की परिक्रमा करता था अब इस उम्र में परिक्रमा करने में समर्थ नहीं हूँ तो भी मंदिर तक आता हूँ लोगों को परिक्रमा करते देखता हूँ और चला जाता हूँ ।तुम दोनों तो अभी युवा हो ज़्यादा सोचो मत चले जाओ।

बस उत्साही मन ने नंगे पाँव परिक्रमा करने की ठान ली । निकल पड़े हम नंगे पॉव। कुछ दूर तो पूरे जोश में चले जैसे नाहक ही सोच रहे थे लगा परिक्रमा तो यूं  ही खेल खेल में पूरी हो जाएगी।कुछ ही देर में मई के महीने के सूरज देवता अपनी पूरी प्रचण्डता के साथ हमारी परीक्षा लेने लगे। एक तो पैदल लम्बी दूरी तय करने की आदत नहीं ऊपर से नंगे पाँव तपती सड़क और अंगारों से धधकते लाल पत्थर लगे फुटपाथ ।कहीं थोड़ी मिट्टी दिखती जो जान में जान आ जाती।मंज़िल की अभी आधी दूरी ही तय की कि पैरों में फफोले पड़ गए एक कदम चलना दुश्वार । 
इच्छा तो हुई कि बहुत हो गया अब आगे की परिक्रमा किसी सवारी मे बैठ पूरी कर लेते है । लेकिन दिमाग़ कहता आधी परिक्रमा तो हो गई आधी भी हो जाएगी घबराओ मत चलते जाओ।
तभी दिमाग़ ने रास्ता भी दिखा दिया पैरों में हरे हरे पत्ते बाँधो और धीरे धीरे चलते रहो मंज़िल तक पहुँच जाओगे।बस  दो चार बार पत्ते बदलते धीरे धीरे पहुँच गए हम अपनी छोटी सी तय मंज़िल तक।

इनपुट सोर्स: कनक एस