लघु कथा: पढ़ाउ चाचा...

फीचर्स डेस्क। बटे सर काका के तीन लड़के थे.. राम कृपाल.. श्याम कृपाल.. शिव कृपाल.. चाचा छप्पन इंच की छाती फुलाकर कहते... एक को पढ़ाऊंगा... दूसरे को लड़ाऊंगा.. तीसरे से किसानी करवाऊंगा... सचमुच एक लड़का दंगल में चला गया.. एक किसानी करने लगा.. और सबसे छोटा दुलरुआ बेटा को काका ने पढ़ने के लिए स्कूल भेजा.. बटे सर काका कहते पढ़ लिखकर बालिस्टर नहीं तो कलस्टर जरुर बनेगा..!!घर का काम नहीं करवाते चाचा... पढ़ाऊ चाचा को बस अच्छा खाना.. अच्छा पहनना था... बटे सर काका की नजर में पढ़ाऊ चाचा भावी आफिसर थे.. चाचा पढ़ने जाते.. पढ़ते कम सिनेमा ज्यादा देखते.. घर का खाना अच्छा नहीं लगता.. घर आते तो सबलोग खातिरदारी में लग जाते..

... पढ़ाऊं चाचा अपने को साहब समझते थे... काका ने उन्हें साहब बनवाया था... रोज -दिन किताब -कापी के लिए पैसा मांगते.. नहीं मिलता तो.. चाचा गहने चुराकर बेच देते... काकी की काठ की संदुकची थी उसमें चांदी का रुपया गठरी बांधकर काकी रखती थी.. काकी तो संदुकची में ताला नहींलगाती थी.. उन्हें पैसे गिनने भी नहीं आता था.. पढ़ाऊ चाचा रोज चांदी का रुपया निकालकर कागज का रुपया बनाते.. घर नहीं आते.. बटे सर काका को लगता.. पढ़ने में मन लगा रहा है.. घर आने से उसकी पढ़ाई बाधित होगी.. जब पैसा घटता तो पढ़ाऊं चाचा आते.. अच्छा पहनने खाने की आदत .. चाचा को चोरी की ओर उकसाती.. इस ढंग से चोरी करते.. बटे सर काकी को समझ में नहीं आता..घरमें कंघी करने के बहाने घुसते.. और पैसे उड़ाते.. वहां पर बैठे लोग को चोरी की भनक भी नहीं लगती.. एक दिन भावज का गहना चुरा लिया.. धीरे से ताला खोला.. पैसा निकाला और शहर की ओर रुख किया.. ताला बंद चाभी भी यथोचित स्थान पर.. किसी को क्या मालूम पढ़ाऊं चाचा कैसे हाथ साफ करते हैं??

.. शिवरात्रि का दिन था.. भावज ने संदुकची खोला तो.. गहना नहीं था.. बैठकर रोने लगी.. उस दिन खाना नहीं खाई.. बड़ी जेठानी से छोटी ने कहा, मेरे गहने नहीं है जब खाने बैठती हूं तो पेट में कलछुल की तरह कुछ घुमने लगता है.. भूख मर जाती है.. मैं जानती हूं.. गहना कौन लिया होगा..?? भावज के भाई ने सगुन करवाया बहन का अनुमान ठीक था'इधर पढ़ाउ चाचा घर में चूहा मार दवाई खा लिया था.. बटे सर काका को बात मालूम हुआ 'बहुरि या ने गहने चोरी का नाम पढ़ाउ चाचा को लगाया है...

बटे सर काका खेत में थे बेटे की हालत सुनकर घर दौड़े आए..पसीने से तरबतर..मुंह सूखा जा रहा था..किसी तरह जीभ को तालु में सटाकर एक घूंट पानी पीया..... बहुरि या पर क्रोध से नथुने फड़क रहे थे.. लाल पीली आंखों से बहुरि या को देख रहे थे.. जैसे निगल जाएंगे बहुरि या को'तुने चोरी का इलजाम मेरे बेटे को लगाया है.. मेरा बेटा मर जाएगा तो.. गहना लेकर जिओगी..?? मैं तुम्हें गहने बनवा दूंगा .. घर की ईज्जत घर में रहने दो' पढ़ाउ चाचा को बटे सर काका ने कोई नसीहत नहीं दिया... परिणाम हुआ पढ़ाउ चाचा में जुआ, खेलने शराब पीने, कोठे पर जाने की लत पड़ गई... पढ़ाई के नाम पर लड़की वाले दरवाजे पर आते थे.. बटे सर काका को बेटे के योग्य लड़की नहीं मिलती थी.. अतिथियों को द्वार से भगा देते थे..!..

.. अहंकार में डूबे बटे सर काका.. खेत खलिहान गिरवी रखकर पढ़ाउ चाचा के पढ़ने का प्रबंध करते... पढ़ाउ चाचा पांच बरस से मैट्रिक में बैठे हैं.. "लक्ष्य से भागा मनुष्य कहीं का नहीं रहता है.. समय किसीकी प्रतीक्षा नहीं करता है.. आपदा में अवसर निकल जाता है.. कम साधन में लक्ष्य की प्राप्ति होती है" पढ़ाउ चाचा को सारी सुविधाएं मिलने लगी... घर बैठे समृद्धि मिलना व्यक्तित्व के विकास में बाधक होता है.. 'साध्य के लिए साधन की क्या आवश्यकता..?? विद्या के लिए स्थिरता, तन्मयता, एकाग्रता की आवश्यकता होती है.. विद्या तपस्या है.. साधना है.. विद्या विनम्रता सिखाती है "पढ़ाउ चाचा में इन गुणों का अभाव था... उनमें दर्शन नहीं प्रदर्शन का बाहुल्य था..!

... बालिस्टर, कलस्टर बनने की बात तो अलग... पढ़ाउ चाचा मैट्रिक भी पास नहीं किए.. अब लड़की वाला भी दरवाजे पर नहीं आता... सत्य को कबतक छिपाया जाएगा..?? " श्रम के बिना पूंजी की कामना मृगमरीचिका है.. सोने के हिरण के लिए राम दौड़ते हैं.. सीता सोने की लंका में गई है तो उसे राम चाहिए" इसलिए कहा गया हैकि"विनाश काले विपरीत बुद्धि" भ्रम का चश्मा आंख पर चढ़ा रहता है... चश्मा हटता है तब वास्तविकता के कांटे पैरों में चुभ कर पैर लहूलुहान कर देते हैं.. समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता है "काज्ञबरखा जब कृषि सुहानी समय चुकी तब का पछतानी"

... बटे सर काका के बड़े बेटे को दंगल में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति मिली है.. मझले को जैविक खेती के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार मिला है.. "सर्वप्रथम कर्म ही पूज्य है.. अधिकारों के दलदल में व्यक्तित्व फंसते जाता है.. कभी निकल नहीं पाता "

.आज बटे सर काका नहीं रहे.. पढ़ाउ चाचा अपने निक्कमेपन, निष्क्रियता में दर-दर की ठोकरे खाते हैं.. बालु के भीत पर जो घर बनाया था आज भहरा गया है "धोबी का गदहा ना घर का न घाट का"।

इनपुट सोर्स : सुशीला ओझा, बेतिया, चम्परण।