लघु कथा : चक्रव्यूह

अपने नीरा को खाए एक सप्ताह हो गए। किसी तरह नमक पानी पीकर ऊर्जस्वित होती है। शायद दोड़ धूप की चादर ने उसकी भूख को ढक लिया है। अभी पति की दवा भोजन देकर आयी है.....

लघु कथा : चक्रव्यूह

फीचर्स डेस्क। नीरा आत्मीयता, सहृदयता, निष्ठा से  पति की सेवा करती है। पति को बेड पकड़े छ महीने हो गए। हालत बद से बदतर हुई जा रही है। अपने सारे जेवर, खेत बेचकर उसने ईलाज कराया है। अहर्निश सेवा में लगी रहती है। एकदिन अनायास अजय की नाक से रक्त स्राव होने लगा। नीरा डर गई, एक तो देह में खून की एक बूंद नहीं और इतना सारा खून गिर रहा है।  डाॅ के पास गयी डाॅ ने चेकअप किया हाइपर टेन्शन है। अच्छा हुआ खून गिर गया नहीं तो ब्रैनडन हेमरेज हो जाता। नीरा की धड़कन तेज हो गई। उसके सामने अंधेरा छाने लगा।  प्रकाश की किरण को जैसे किसी ने चुरा लिया हो।  फिर अपने को आश्वस्त किया,  दो छोटे छोटे बच्चे हैं  स्कूल से आकर खाना के लिए बिलबिलाते हैं। घर में अन्न का दाना भी नहीं है सारे पैसे खत्म हो गए पति के इलाज में। एक मंगलसूत्र लटक रहा है.. क्या होगा मंगल सूत्र जब सूत्र ही टूट जाएगा तो मंगल के मोती सब बिखर जाएंगे। बच्चों के खाने के इंतजाम में लग गई.. कहीं डिब्बे में थोड़ा चुड़ा था..  एक डब्बे में चीनी भी था.. बच्चों को चीनी चुड़ा भिंगाकर उनके पेट की अग्नि को शांत किया और चुड़ा चीनी को यत्नपूर्वक रख दिया दूसरे दिन के लिए। अपने नीरा को खाए एक सप्ताह हो गए। किसी तरह नमक पानी पीकर ऊर्जस्वित होती है। शायद दोड़ धूप की चादर ने उसकी भूख को ढक लिया है.. अभी पति की दवा भोजन देकर आयी है। इधर बच्चों की मांग पिज्जा मंगवाओ.. हम रोज चुड़ा चीनी नहीं खाएंगे.. बच्चे हड़ताल पर हैं।  घर की दयनीय स्थिति पैसे का अभाव.. अंतिम सूत्र मंगल का था... सोच रही थी.. माथे की बिंदिया, सिन्दूर भरी मांग पति की अमानत है। सूत्र बिखर जायं तो सीमान्त में लगभग सिन्दूर पति के मंगल का साक्षी है। पति और बच्चों में डोलती.. लड़खड़ाते कदमों से धरती को नापती जिजीविषा के संबल से अपने को संयमित करती  सासों की धौंकनी चलाती है।  बिना तेल के..  रात्रि के आठ बजे हैं पति को दवा देने जाती ।देखती है उनका देह ठंढा पड़ गया है... रोने का समय कहां है.. पैसे जोड़ी है.. कल उसने सुहाग के चिह्न को भुनाया या है, सुहाग के स्पंदन के लिए.. वह स्पंदन गया.. वह गति रूक गई... वह पेड़ में पड़ी बेल की तरह भरभरा कर गिर गई.. लेकिन पेड़ अभी मिट्टी से लगा था... किसी तरह पति का दाह संस्कार किया अपने कांधा दिया बच्चे छोटे थे। मुखाग्नि दिलवा दिया। मुझे कंधा नही दिया चलिए में ही आपको कंधा देती हूं.. मंगल सूत्र के रुपये से पति का श्राद्ध किया। न माथा पटकी, न रोयी न चिल्लाई.. किस पर रोती.. सारी जवाब दे ही उसी पर थी।
केकरा पर करीं श्रृंगार पुरुख मोरे आन्हर... 

पति के मरने के पश्चात् समस्या सुरसा की तरह मंहगाई फैलाए बैठी थी.. ब्राह्मण की लड़की.. दो छोटे छोटे बच्चे अभी उम्र पच्चीस वर्ष की थी.. समय की मार से चेहरा कान्तिहीन हो गया था.. समस्याओं के बढ़ते मुंह को कैसे छोटा किया जायं.. किसी के घर झाड़ू पोछा भी नहीं कर सकती है.. बच्चों की पढ़ाई.. भोजन कहां से आएगा... बहुत चिंतन, मनन के बाद समस्या के फैले मुंह को अपनी युक्ति के मसक से निकालकर अपनी बुद्धि कौशल का परिचय दिया। भुजा सत्तु की छोटी सी दूकान खोली।  चावल.. चुड़ा मकई का चिप्स खरीदकर लाती और उसे नमक से भुनती। पहले तो लोगों ने मजाक उड़ाया,  उसकी नई ऊम्र को देखकर कुछ भ्रमर वृति के लोग मड़राने लगे.. नीरा ने अपने ध्यान को संतुलित, संयमित किया.. और तल्लीनता से एकाग्रता से अपने लघु उद्योग के कार्यान्वयन में जुट गई.. देखते देखते छिछोरे चले गई.. दूकान छोटी थी धीरेधीरे चलने लगी। पुंजी के अभाव में चल रही थी।  अपना कार्य निकल रहा था.. दो जून की रोटी मिल जाती थी... और लोगों से कम पैसा लेती थी। भुजा सत्तु की गुणवत्ता अच्छी थी.. नीरा की मृदुल, कोमल व्यवहार से दूकान पर   ग्राहक आनै लगे.. अब  तिवारी, अदवरी भी बनाती थी। अचार चटनी सब कुछ रखती थी।  जो लोग मजाक उड़ाते थे नीरा के प्रशंसक हो गए... 

नीरा चक्रव्यूह में फंसी थी तो अपने धैर्य से निकलने का रास्ता भी सीख ली।
पति की अनुपस्थिति में बच्चों को भी पढ़ाती संस्कार देती। उसके दृढ़ संकल्प से परिवार की गाड़ी  सरपट दौड़ाने लगी। वह देवी बनकर गांव में पूज्या बन गई।

इनपुट सोर्स: डॉ सुशीला ओझा