लघु कथा: ' मिस्ड कॉल'

फिर अचानक 'मिस्ड कॉल' आने से उसके मस्तिष्क की बेचैनी बढ़ ही जाती है. अपनी अधीरता को रोक पाना उसके लिए संभव ही नहीं है ...

लघु कथा:  ' मिस्ड कॉल'

फीचर्स डेस्क। जीवन में अपने मन का कुछ न कर पाने की पीड़ा कभी पीछा नहीं छोड़ती. अतीत को भुलाना इतना आसान नहीं होता. कुछ कह न पाने का दर्द अपने साथ अनेक निराशाओं को भी संगी बना लेता है. आधी रात के 'मिस्ड कॉल' के बाद विशाल की भी यही स्थिति बनी हुई है. जीवन में वह इतना आगे बढ़ चुका है कि पुराने संबंधों को निभाने या याद करने का कोई औचित्य ही नहीं बनता. पत्नी है, बच्चे हैं, रुपये- पैसे हैं, पद- प्रतिष्ठा है लेकिन एक ठहरे हुए तालाब के जल की तरह उसका जीवन आठ वर्ष पूर्व से वहीं रुकी हुई है जहाँ संस्कृति ने उसका हाथ छोड़ा था, साथ छोडा़ था.

विशाल भूल ही नहीं पाता उस पहली मुलाकात को जब वह पहली बार कार्यभार को संभालने अपनी नयी ऑफिस गया था. पत्नी थी, उसकी बांहों में जीवन की सारी निश्छल खुशियाँ थीं लेकिन फिर भी उस अनजान चेहरे से नज़र हटी ही नहीं जो पूरी निष्ठा और समर्पण भाव से अपना काम कर रही थी. संस्कृति की वे बड़ी- बड़ी आंखें, गरिमापूर्ण छवि, उसके काम करने का तरीका, उसकी एकाग्रता और बहुत कुछ कह डालने के बाद थोड़ा- सा मुस्कुराना.. कम- से- कम शब्दों में अपनी पूरी भावना को प्रकट करने की सक्षमता.. विशाल को अपने आकर्षण से प्रभावित कर ही डाला.

विशाल को अच्छी तरह याद है उसने अपने स्टूडेंट लाइफ में कभी भी, किसी भी लड़की को कोई लिफ्ट नहीं दी. ऐसी बात नहीं थी कि वह आकर्षक नहीं था बल्कि उसके अंदर का पुरुष कभी किसी के सामने झुकने को तैयार नहीं हुआ. माँ- बाप ने जहाँ उसका विवाह निश्चित किया उसने कभी भी किसी तरह का विरोध नहीं किया. लेकिन विवाह के पश्चात जो हो रहा था और जो हुआ वह उसके लिए अप्रत्याशित था. संस्कृति के मौन- आकर्षण से अपने आप को उबार पाना उसके लिए असंभव- सा हो गया.

उसे याद है ऑफिस की ओर से जब सभी पिकनिक पर गये थे.. अचानक उसे फुड प्वायजनिंग हो गया और वह लगातार उल्टियां करने लगा. सारे स्टाफ नयी जगह का आनंद लेने में मग्न थे. वह होटल के कमरे में बेसुध पड़ा था.उस रमणीक जगह पर कहीं घूमने की इच्छा संस्कृति ने छोड़ दिया था और उसकी कितनी देखभाल की थी. एक माँ, बहन, प्रेयसी की छवि किसी तरह भी एक स्टाफ की छवि में समाहित करना उसके लिए अचंभित करने वाली थी. संस्कृति का दायित्व- निर्वहन एक समर्पित छवि में कब परिणत हो गई विशाल को पता ही नहीं चला. विशाल जब ऑफिस के काम से या पारिवारिक तनावों से बोझिल रहता.. संस्कृति बड़े प्यार और सराहना से उसकी प्रशंसा करती और विशाल की हर पसंद- नापसंद का पूरा- पूरा ख्याल रखती. विशाल को लगने लगा था कि वह अपने अधिकृत क्षेत्र से अकस्मात बाहर जाने लगा है और संस्कृति से उसे लगाव होने लगा है.

संस्कृति का ही विशेष आग्रह था उस दिन फिल्म देखने का और जब आधी फिल्म बीत चुकी तब चुपचाप उसका हाथ विशाल के कंधे पर कब जा पहुँचा उसे आज भी आश्चर्य होता है. ऑफिस के काम से जब भी बाहर जाना होता विशाल की तीव्र इच्छा होती कि संस्कृति भी उसके साथ जाये. संस्कृति का मौन- निमंत्रण वह अस्वीकार नहीं कर पाता था. वह विवाहित है और एक बच्चे का पिता भी,उसे यह भी बताने का साहस नहीं होता था.

उसके चले जाने के बाद विशाल को एक अनजानी- सी विवशता का अनुभव होता. उसे स्वीकार करना बहुत कठिन हो जाता कि अपने दांपत्य जीवन में वह इतना दूर निकल चुका है कि वापसी का कोई विकल्प शेष नहीं रह गया था. उसमें इतना सामर्थ्य नहीं था कि वह अपने घर वालों से इस नये संबंध की स्वीकृति दिलवा सकता.
कुछ दिनों तक यह अंतर्द्वंद्व, संघर्ष चलता रहा. विशाल उस दर्द और बेबसी को लेकर बहुत अकेला हो गया था...एक तरफ अपनी सुलक्षणा पत्नी के अविश्वास का डर तो दूसरी तरफ संस्कृति की भावनाओं की कद्र न करने का अपराध- बोध. और फिर वही हुआ जो नियति को स्वीकार था और उचित भी.

किसी माध्यम से संस्कृति को यह पता चल गया कि विशाल विवाहित ही नहीं एक बच्चे का पिता भी है. यह सूचना उसे पूरी तरह से तोड़ देने के लिए पर्याप्त था. संस्कृति ने अपने माता- पिता के बताये संबंध को यथाशीघ्र स्वीकार कर लिया. उसका विवाह हो गया और वह हमेशा के लिए वहाँ से चली गई. लेकिन विशाल उन आठ वर्षों पूर्व बिताये गये अनमोल स्मृतियों से आज तक उबर नहीं पाया. अनायास उसकी ऊंगलियां फोन का बटन दबाने लगती और रिंग होते ही काट दी जातीं. यहाँ तक कि अकेलेपन और उदासी के क्षणों में उसने अपनी पत्नी को भी उन बीते अमूल्य क्षणों के बारे में बहुत कुछ बताया था. कुछ दिनों तक तो पत्नी इस अविश्वसनीय घटना से विचलित हो उठी थी. लेकिन फिर वह उस स्थिति को एक तरह से स्वीकार कर स्थिर हो गई और इस बात के लिए बार- बार वह विशाल को दोषी समझने लगी. संस्कृति से वह मिल भी चुकी थी. और उसकी निश्छल, निष्पाप छवि से प्रभावित भी थी. शिकायत उसे अपने पति से थी जिसने अपने विवाहित होने की बात संस्कृति से अंत- अंत तक छुपाई थी.

आज विशाल को पश्चाताप है, ग्लानि है,धिक्कार है इस बात का कि आखिर उसने ऐसा छल क्यों किया? उसे अपनी कायरता पर लज्जा आती है. अपनी भावनाओं पर काबू पाना उसके लिए असंभव क्यों हो गया. अगर सब कुछ पहले से ही स्पष्ट होता तो शायद संस्कृति को इस तरह खोने का दर्द उसे झेलना नहीं होता.

स्वच्छ खिली चांदनी आकाश को सुशोभित कर रही है. अब गर्मी भी शुरू हो गई है. विशाल अपनी उथल- पुथल को समझ पाने में असमर्थ था. उसे नींद नहीं आ रही है. बालकनी में देर रात तक टहलना उसकी आदत हो गई है. पुरानी स्मृतियाँ उसे व्यथित कर देतीं हैं. वह एक ऐसे दोराहे पर खड़ा था जहाँ आगे और पीछे.. दोनों कड़ियों को जोड़ना संभव ही नहीं थ

फिर अचानक 'मिस्ड कॉल' आने से उसके मस्तिष्क की बेचैनी बढ़ ही जाती है. अपनी अधीरता को रोक पाना उसके लिए संभव ही नहीं है. अब वह पूर्णतः निश्चिन्त है.आज वह हर संभव प्रयास करेगा उन दोनों कड़ियों को जोड़ने का. चांद पूरी तरह आकाश में आच्छादित था. पास से गुजरती ट्रेन उसके जीवन में एक सौगात- सी लगती है. आम्र- मंजरियों का नशा प्रत्येक जड़- चेतन को उन्मत्त कर रहा है. लगता है वह स्वर्गिक मादकता विशाल के रोम- रोम को छूते हुये हृदय में समाहित हो रहा है. उसके अंग- अंग उस नशे से आकर्षित और आप्लावित हैं. विशाल फिर अपनी ऊंगलियों को स्थिर कर फोन के बटन को दबाने का प्रयास करता है. कई बार रिंग होता है और फोन उठाते ही आवाज़ आती है- " हेलो.. कौन.. मैं संस्कृति.. "

इनपुट सोर्स : डॉ शिप्रा मिश्रा