Varanasi : काशी में कब और किसने शुरू किया था बुढ़वा मंगल, पढ़ें मीर रुस्तम अली का क्या था रोल !

कहा जाता है कि एक लंबे अरसे से यहाँ इस दिन काशी की मशहूर गायिकाएं सजे सजाये बजड़े पर जब श्रोताओं को होरी, चैती, ठुमरी व दादरा पेश करती थीं और उनकी गूंज गंगा घाट के अलावा बहुत दूर तक सुनाई पड़ती थी...

Varanasi : काशी में कब और किसने शुरू किया था बुढ़वा मंगल, पढ़ें मीर रुस्तम अली का क्या था रोल !

वाराणसी सिटी। बनारस जिसको लिखित रूप से वाराणसी कहते हैं। इस शहर में होली के बाद पड़ने वाले मंगलवार को “बुढ़वा मंगल” के नाम से सेलिब्रेट करने का रिवाज बहुत पुराना है। बता दें कि काशी में गंगा की लहरों पर बजड़ों पर बुढ़वा मंगल का आयोजन बहुत प्राचीन है। बता दें कि “बुढ़वा मंगल” का इतिहास सैकड़ों साल पुराना माना जाता है। कहा जाता है कि एक लंबे अरसे से यहाँ इस दिन काशी की मशहूर गायिकाएं सजे सजाये बजड़े पर जब श्रोताओं को होरी, चैती, ठुमरी व दादरा पेश करती थीं और उनकी गूंज गंगा घाट के अलावा बहुत दूर तक सुनाई पड़ती थी।

परम्परा पहले की अपेक्षा सिमट रहा है

बनारस की इन गायिकाओं में उस जमाने की हुस्ना बेगम, बड़ी मैना बाई, बड़ी मोती बाई, छोटी मोती बाई, मुश्करी बेगम, विद्याधरी बाई, अमीर जान, छप्पन छुरी आदि रहीं। बनारस में वैसे तो होली के दूसरे मंगलवार को बुढ़वा मंगल का आयोजन गंगा घाट पर होता है लेकिन यह परम्परा पहले की अपेक्षा सिमट कर रह गया है। संस्कृति विभाग के डा. सुभाष चन्द्र की मानें तो इस वर्ष भी बुढ़वा मंगल के आयोजन के लिए शासन को प्रस्ताव भेजा गया है। लेकिन अभी तक शासन की ओर से कोई समुचित जवाब नहीं मिला है। वैसे शासन की ओर से स्वीकृति मिलते ही काशी के घाट पर बजड़े पर बुढ़वा मंगल का आयोजन किया जायेगा।

शहर के रईस बुढ़वा मंगल के आयोजन में होते थे शामिल

बुढ़वा मंगल के आयोजन के दौरान एक दौर ऐसा भी आया जब यह आयोजन बंद होने के कगार पर पहुंच गया था। इस पर इसके आयोजन के लिए काशी के कई रईसों ने हाथ बढ़ाया था। उनमें प्रमुख उद्यमी राजेश जैन रहे जिन्होंने 2011 में संस्कृति विभाग के डा. लवकुश द्विवेदी के साथ मिल कर डा. राजेन्द्र प्रसाद घाट पर वृहद बुढ़वा मंगल का आयोजन किया था। वे बताते हैं कि उस समय एक बड़े बजड़े के अलावा 50 अन्य बजड़े भी मंगाये गये थे। इसके साथ ही सभी के लिए ठंडई, मगई पान, डुपट्टा, इत्र-गुलाब, अबीर गुलाल की व्यवस्था की गई थी। उन दिनों राजेश जैन इस कार्यक्रम के संयोजक भी रहे। 2011 में बुढ़वा मंगल में इन्द्राणी बनर्जी का गायन हुआ था। राजेश जैन को कार्यक्रम की सफलता के लिए लगातार तीन साल तक प्रथम पुरस्कार भी मिला था। इसके पहले रामघाट पर भी बुढ़वा मंगल का आयोजन होता था। जहां पर रम्मू भइया, अमूल्य शर्मा व राजेश जैन जुटे रहते थे। 2020 से लेकर 2022 तक कोरोना संक्रमण के चलते बुढ़वा मंगल कार्यक्रम पर विराम लग गया। लेकिन बाद में प्रशासन की पहल पर पुन: कार्यक्रम हुआ।

कलेक्टर बीएन मेहता ने फिर से शुरू कराया बुढ़वा मंगल

बताते हैं कि मुगलकाल के अंतिम दौर में काशी के प्रशासक मीर रूस्तम अली से बुढ़वा मंगल की शुरूआत मानी जाती है। स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेजों ने कई साल तक भारतीय पर्व एवं उत्सव को बंद करा दिये। तमाम कोशिशों के  बाद प्रदेश के तत्कालीन गवर्नर की अनुमति पर उस दौर के कलेक्टर बीएन मेहता ने सन 1926 में बुढ़वा मंगल फिर से शुरू कराया। यह सिलसिला आगे चार साल तक चलने के बाद फिर बंद हो गया। बाद में काशी के रईसों के प्रयास से यह पुन: शुरू हुआ। तत्कालीन क्षेत्रीय सांस्कृतिक अधिकारी डा. रत्नेश वर्मा बताते हैं कि बुढ़वा मंगल कई बार स्थगित हुआ। 1996-97 में इसको एक बार फिर से शुरू किया गया था। उस समय भारतरत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां का शहनाई वादन हुआ था। इसमें न जाने कितने ही दिग्गज कलाकारों का कार्यक्रम हुआ जिसमें स्व. गिरिजा देवी, पं. राजन-साजन मिश्र, रीता देव समेत कई कलाकार रहे।

काशी के राजाओं का रहा अंशदान

बुढ़वा मंगल के आयोजन के लिए काशी के राजा-महराओं का अंशदान रहा। इनमें राजा बलवंत सिंह, राजा चेतसिंह, ईश्वरी नारायण सिंह, प्रभु नारायण सिंह, नवाब वाजिद अली शाह, महराजा विजयानगरम, राजा मोतीचंद, डा. विभूतिनारायण सिंह आदि रहे।

रामनगर किले से राजघाट के बीच लगते थे बजड़े

काशी की महफिलों में खास जगह रखने वाला बुढ़वा मंगल होली के बाद पड़ने वाले दूसरे मंगलवार को मनाया जाता है। लेकिन कभी कभार अन्य दिनों में भी यह कार्यक्रम होता है। कहते हैं कि इसके आयोजन में बुजुर्गों की भागीदारी होने के चलते इसको बुढ़वा मंगल कहा जाता है। इसमें राजा-महराजा व रईसों का योगदान रहा। रामनगर किले से राजघाट के बीच बजड़े एक-दूसरे से जोड़ दिये जाते थे। रईसों के बजड़ों की पहचान के लिए अलग-अलग ध्वजा व चिह्न लगाये जाते थे। शामियाना व मसनद भी लगता था। इसके साथ ही कालीनें भी बिछती थीं। रोशनी का भी इंतजाम होता था। इस दौरान गंगा तट पर पूरा इलाका रोशनी से नहा उठता था। बजड़ों पर गीत-संगीत व नृत्य के साथ ही होरी, चैती, दादरा, ठुमरी की गूंज पर सभी झूमते रहते थे।