सावन स्पेशल : सावन में भगवान शिव को करना है प्रसन्न तो करें श्री शिव रुद्राष्टक स्तोत्र” का जाप

"श्री शिव रुद्राष्टक स्त्रोत्र" भी इन्हीं में से एक है। यदि प्रतिदिन शिव रुद्राष्टक का पाठ किया जाए तो सभी प्रकार की समस्याओं का निदान स्वत: ही हो जाता है...

सावन स्पेशल : सावन में भगवान शिव को करना है प्रसन्न तो करें श्री शिव रुद्राष्टक स्तोत्र” का जाप

फीचर्स डेस्क। सावन का महिना चल रहा है। इस महीने में भक्त भोले बाबा को प्रसन्न करने के लिए विशेष पूजा-पाठ करते हैं। ऐसे में भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए अनेक मंत्र, स्तुति व स्त्रोत की रचना की गई है। इनके जप व गान करने से भगवान शिव अति प्रसन्न होते हैं। "श्री शिव रुद्राष्टक स्त्रोत्र" भी इन्हीं में से एक है। यदि प्रतिदिन शिव रुद्राष्टक का पाठ किया जाए तो सभी प्रकार की समस्याओं का निदान स्वत: ही हो जाता है। साथ ही भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है। महाशिवरात्रि, श्रावण अथवा चतुर्दशी तिथि को इसका जप किया जाए तो विशेष फल मिलता है।

श्री रामचरित्र मानस के उत्तर काण्ड में वर्णित इस रूद्राष्टक की कथा कुछ इस प्रकार है। कागभुशुण्डि परम शिव भक्त थे। वो शिव को परमेश्वर एवं अन्य देवों से अतुल्य जानते थे। उनके गुरू श्री लोमेश शिव के साथ-साथ राम में भी असिम श्रद्धा रखते थे। इस वजह से कागभुशुण्डि का अपने गुरू के साथ मत-भेद था। गुरू ने समझाया कि; स्वयं शिव भी राम नाम से आनन्दित रहते हैं तो तू राम की महिमा को क्यों अस्विकार करता है। ऐसे प्रसंग को शिवद्रोही मान कागभुशुण्डि अपने गुरू से रूष्ट हो गए।

इसके उपरांत कागभुशुण्डि एक बार एक महायज्ञ का आयोजन कर रहे थे। उन्होंने अपने यज्ञ की सुचना अपने गुरू को नहीं दी। फिर भी सरल हृदय गुरू अपने भक्त के यग्य में समलित होने को पहुँच गए।

शिव पुजन में बैठे कागभुशुण्डि ने गुरू को आया देखा। किन्तु कागभुशुंडी अपने आसन से न उठे, न उनका कोई स्तकार ही किया। सरल हृदय गुरू ने एक बार फिर इसका बुरा नहीं माना।

पर महादेव तो महादेव ही हैं। वो अनाचार क्यों सहन करने लगे ??

भविष्यवाणी हुई – अरे मुर्ख, अभिमानी ! तेरे सत्यज्ञानी गुरू ने सरता वस तुझपर क्रोध नहीं किया। लेकिन, मैं तुझे श्राप दुंगा। क्योंकि नीति का विरोध मुझे नहीं भाता। यदि तुझे दण्ड ना मिला तो वेद मार्ग भ्रष्ट हो जाएंगे। जो गुरू से ईर्ष्या करते हैं वो नर्क के भागी होते हैं। तू गुरू के समुख भी अजगर की भांति ही बैठा रहा। अत: अधोगति को पाकर अजगर बनजा तथा किसी वृक्ष की कोटर में ही रहना। इस प्रचंण श्राप से दुःखी हो तथा अपने शिष्य के लिए क्षमा दान पाने की अपेक्षा से, शिव को प्रसन्न करने हेतु; गुरू ने प्रार्थना की तथा रूद्राष्टक की वाचना की तथा आशुतोष भगवान को प्रसन्न किया। कथासार में शिव अनाचारी को क्षमा नहीं करते यद्यपि वो उनका परम भक्त ही क्यूँ ना हो।

परम शिव भक्त कागभुशुण्डि ने जब अपने गुरू की अवहेलना की तो; वे भगवान शिव के क्रोध-भाजन हुए। अपने शिष्य के लिए क्षमादान की अपेक्षा रखने वाले सहृदय गुरू ने रूद्राष्टक की रचना की तथा महादेव को प्रसन्न किया। गुरु के तप व शिव भक्ति के प्रभाव से यह शिव स्तुति बड़ी ही शुभ व मंगलकारी शक्तियों से सराबोर मानी जाती है। साथ ही मन से सारी परेशानियों की वजह अहंकार को दूर कर विनम्र बनाती है। शिव की इस स्तुति से भी भक्त का मन भक्ति के भाव और आनंद में इस तरह उतर जाता है कि; हर रोज व्यावहारिक जीवन में मिली नकारात्मक ऊर्जा, तनाव, द्वेष, ईर्ष्या और अहं को दूर कर देता है। यह स्तुति सरल, सरस और भक्तिमय होने से शिव व शिव भक्तों को बहुत प्रिय भी है। धार्मिक नजरिए से शिव पूजन के बाद इस स्तुति के पाठ से शिव शीघ्र प्रसन्न होते हैं। सम्पुर्ण कथा रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में वर्णित है।

“श्री गोस्वामी तुलसीदास कृतं शिव रूद्राष्टक स्तोत्रं”

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं

विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं

चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥1॥

निराकारमोङ्करमूलं तुरीयं

गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम् ।

करालं महाकालकालं कृपालं

गुणागारसंसारपारं नतोऽहम् ॥2॥

तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभिरं

मनोभूतकोटिप्रभाश्री शरीरम् ।

स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगङ्गा

लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥3॥

चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं

प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।

मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं

प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि ॥4॥

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं

अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशं ।

त्र्यःशूलनिर्मूलनं शूलपाणिं

भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥5॥

कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी

सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।

चिदानन्दसंदोह मोहापहारी

प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥6॥

न यावद् उमानाथपादारविन्दं

भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।

न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं

प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं ॥7॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजां

नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम् ।

जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानं

प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ॥8॥

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये

ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥9॥

॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं सम्पूर्ण ॥

इनपुट सोर्स : ज्योतिषाचार्य एवं हस्तरेखार्विंद विनोद सोनी “पोद्दार”, भोपाल सिटी।