अधूरी तस्वीर
फीचर्स डेस्क। तुम्हारी आधी तस्वीर को अक़्सर पूरा करने की सोचती हूँ पर थम जाती हूँ एक पल कई बार पूरा करने की चाह में,जब भी मन की कलम हाथों मे लें कैनवास पर हर बार अलग छवि उभरी जो मेरे अनुरूप नही थी, एक बार गई थी यादों की रद्दी में तुम्हें ढूँढने, तब बातों और मुस्कुराहट के अनुरूप रँग सकू तुम्हे...!
एक बना कर रखी भी है तस्वीर जिसमें
चेहरे पर दो आँखे है, जिसमें समेटा है तुमने ज़माने भर का दर्द, एक प्यास देखती हूँ उसमें,नाक पर गुस्सा थोड़ी लम्बी है पर दम्भी सी, होंठो को तुम्हारी बातों से आँकती हूँ शांत नही रहते हहहहहहह की वह छेड़ती ध्वनि के बीच टेढ़ी मेढ़ी दंत पँक्तियां. एक अक्स उभर आता है मन मुताबिक़...!
पर तस्सली नही मिलती..
लापरवाह चाल का एक ऐसा मुसाफ़िर जो स्थिर नही रहता,शिवाय बुद्ध के सँग तालमेल बिठाते तुम, अक्सर यात्रा करते हो मणिकर्णिका के घाटों के पास जीवन के यथार्थ का पाठ पढ़ने,तो कभी राँझा बन दिलो पर दस्तक देते,बस मेरे मनमुताबिक ढाल नही पाते तुम ख़ुद को मुझ संग..! बेफ़िक्री तुम्हारी मायने नही रखती अब।
पता है क्यों रँगों को थामे एक कैनवास लिए चलती हूँ मैं परछाई बन तुम्हारे पीछे की जिस दिन थम जाओगे किसी मोड़ पर,तब शायद देख सकूँगी तुम्हें। जो कुछ तो मिलती जुलती होगी रद्दी के कमरे बनाई हुई अनदेखे की एक तस्वीर, क्या उसी से मिलते हो तुम? सुनो देव तुम्हे प्रत्यक्ष देखने कि चाह में कई कैनवास की तसवीरें अधूरी है उस बन्द रद्दी के कमरे में...!
बातचीत करती तस्वीरे मुस्कुराती तस्वीरें फिऱ अदृश्य हो जाती है। अचानक पता है क्यों, तुम्हारे कई रूपों में उलझी हुई हँ मैं अब तक....!
गुमसुम रँगों के साथ कैनवास लिए आज भी प्रतिक्षारत हूँ मैं तुम्हारी आधी अधूरे वज़ूद को पूर्ण करने के लिए औऱ रोक सकूँ तमाम प्रश्न चिन्हों को मचाते है खलबली ज़ेहन में..! जब सोचती हूँ न तुम्हें तब
इनपुट सोर्स : सुरेखा अग्रवाल “स्वरा”, लखनऊ सिटी।