क्या आप जानते हैं पूनम को, चटाई क्लिनिक से शुरु किया और 75 हजार बच्चों को कैंसर से बचाने के लिए छोड़ दी नौकरी

सरकारी अफसर रहीं पूनम ने नौकरी छोड़कर अपना जीवन कैंसर से जूझ रहे बच्चों और उनके परिवारों पर न्योछावर कर दिया...

क्या आप जानते हैं पूनम को, चटाई क्लिनिक से शुरु किया और 75 हजार बच्चों को कैंसर से बचाने के लिए छोड़ दी नौकरी

फीचर्स डेस्क। कैंसर एक ऐसी बीमारी है जो समाज में तेजी से बढ़ रही है लेकिन जो इसके दर्द से गुजरा, उसे ही यह पीड़ा समझ आती है। गुरुग्राम में रहने वालीं पूनम बगई खुद कैंसर सर्वाइवर हैं। लगभग 2 साल भविष्य से अनजान और मौत के खौफ से जूझीं पूनम ने कैंसर से जंग जीती और आज वह कैंसर पीड़ित बच्चों की मसीहा बन गई हैं। सरकारी अफसर रहीं पूनम ने नौकरी छोड़कर अपना जीवन कैंसर से जूझ रहे बच्चों और उनके परिवारों पर न्योछावर कर दिया। वह 'कैन किड्स किड्स कैन' नाम से एनजीओ चलाती हैं। अब तक वह कैंसर से जूझते 75 हजार से ज्यादा बच्चों का इलाज करा चुकी हैं।

जानिए पूनम बगई का सफर

IRAS अफसर बनी, पोलैंड गईं तो आंतों का कैंसर निकला

मेरा जन्म भोपाल में हुआ। पापा सरकारी नौकरी में थे और मेरी परवरिश दिल्ली में हुई। मैंने 1984 में सिविल सर्विसेज की परीक्षा पास की और मैं इंडियन रेलवे अकाउंट्स सर्विस यानी IRAS अफसर बन गई। मेरे हस्बैंड बैंकिंग सेक्टर में थे। उनकी पोलैंड में जॉब लगी तो मैंने 5 साल की छुट्टी ली और वहां चली गई। वहां जाकर मेरी जिंदगी ही बदल गई। मुझे अक्सर थकान, पेट दर्द और कब्ज की शिकायत रहती, लेकिन कभी कुछ टेस्ट में नहीं निकला। साल 2000 में जब मैं 38 साल की थी तब मेरी बड़ी आंत में टेबल टेनिस की बॉल की साइज का ट्यूमर निकला। तब मुझे कोलन कैंसर का पता चला, जो स्टेज-2 पर था।

मरने से ज्यादा बच्चों के भविष्य का डर सताता रहा

कैंसर किसी सजा से कम नहीं होता। कैंसर का इलाज डरावना और थकाऊ होता है। मेरी 3 सर्जरी और 9 कीमोथेरेपी हुईं। कोलन कैंसर की वजह से मेरी आंत कांटी गई। उस दौरान लंदन से मेरी बहन, सिंगापुर से भाई, इंडिया से पेरेंट्स और सास-ससुर भी मेरे पास पहुंच गए। पति साथ में खड़े ही थे लेकिन परिवार का सपोर्ट मिलने के बाद भी मैं डरी हुई थी। उस समय मेरा एक बेटा 7 साल का और दूसरा 3 साल का था। इस दर्दनाक दौर में मैं डिप्रेशन का शिकार हो गई। मुझे लगता कि मैं मर जाऊंगी और अगर मर गई तो मेरे बच्चों का क्या होगा। इस बुरे वक्त में परिवार मेरी ताकत बना, तब मुझे अपने देश में परिवार की अहमियत का अहसास हुआ। मैं हॉस्पिटल में थी तो घरवालों ने बच्चों की देखभाल की। जब मैं पोलैंड के हॉस्पिटल में एडमिट थी तो मेरे आसपास के मरीज पूछते कि तुम्हारे घर से हमेशा कोई न कोई यहां मौजूद रहता है। जबकि विदेशों में ऐसा कल्चर नहीं है।

भगवान से जिंदगी मांगी और कैंसर पीड़ित बच्चों की मदद करने की प्रतिज्ञा ली

मैं कैंसर से बहुत परेशान थी लेकिन मैंने भगवान से अपने बच्चों की खातिर अपनी जिंदगी मांगी और साथ में वादा किया कि अगर मैं ठीक हो गई तो भारत में कैंसर से जूझ रहे हर बच्चे की मदद करूंगी। क्योंकि मैंने कैंसर का दर्द झेला था। मेरे पास पैसा, बीमा, परिवार का सपोर्ट सब कुछ था लेकिन फिर भी यह बहुत मुश्किल वक्त था। तब मैं सोचती कि जिसके पास ये सब नहीं है, उसे तो मुझसे ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ता होगा। आखिरकार भगवान ने मुझे दूसरा जीवन दिया। 2002 में मैंने कैंसर को मात दी।

2002 में भारत आकर सरकारी नौकरी छोड़ी

पोलैंड से वापस आकर मैंने अपनी सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। इस फैसले पर सभी ने मेरा सपोर्ट किया लेकिन पापा खुद सरकारी नौकरी में रहे हैं तो उन्होंने कहा कि जो करना है बहुत सोच-समझकर करना।

चूंकि मैंने कैंसर पीड़ित बच्चों की मदद करने की प्रतिज्ञा ली थी तो मैं दिल्ली के एम्स में वॉलंटियर बन गई। यहां मेरी मुलाकात सोनल शर्मा से हुई। उनकी बेटी को 2 साल की उम्र में कैंसर था। वह भी एम्स में वॉलंटियर ही थीं। अब वह एनजीओ की को-फाउंडर हैं। सोनल ने अपनी बेटी का इलाज एम्स में ही कराया था। तब मैंने उनसे अपने मन की बात शेयर की तो हम दोनों ने मिलकर फैसला लिया कि हम कैंसर पीड़ित बच्चों के मां-बाप की मदद करेंगे।

4 साल तक चलाया चटाई क्लिनिक

2004 से 2008 तक मैं दिल्ली के एम्स, सफदरजंग हॉस्पिटल और राजीव गांधी कैंसर इंस्टीट्यूट एंड रिसर्च सेंटर में जैसे बड़े अस्पतालों में जाकर बैठी। वहां कैंसर से जूझ रहे गरीब परिवारों के बच्चों की जरूरतों को देखा-समझा और उनकी तकलीफ को जाना। हमने अस्पतालों से कैंसर पीड़ित बच्चों के परिवारों की मदद करने के लिए जगह मांगी, लेकिन जगह नहीं मिली तो हमने कहा कि हमें अपनी चौखट पर बैठने दीजिए। वहां हमने चटाई बिछाई जिसे ‘चटाई क्लिनिक’ नाम दिया। दरअसल जो परिवार बच्चों का इलाज कराने आते हैं उनका नंबर कई घंटों में आता है। ऐसे में चटाई क्लिनिक में कैंसर पीड़ित बच्चों को नंबर आने तक पढ़ाया जाता और उनके मां-पापा से बात कर उनकी जरूरतें पूछी जाती और बताया जाता कि खून कहां मिलेगा, बच्चे की डाइट कैसी रहे आदि। वहीं चौखट में बैठने से यह फायदा हुआ कि लोगों को हमारे एनजीओ के बारे में पता चलने लगा। हमने कई गरीब परिवारों का हाथ थामा और उनकी जरूरतों को पूरा किया।

इंडियन कैंसर सोसाइटी का मिला साथ

मैं इंडियन कैंसर सोसाइटी के पास गई और उन्हें बोला कि मैं उन्हें वॉलंटियर करूंगी। इस तरह ‘कैन किड्स किड्स कैन’ की शुरुआत हुई। उन्होंने हमारा साथ दिया और अपनी छत्रछाया दी क्योंकि उस समय मुझे एनजीओ के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। हमने कैंसर पीड़ित बच्चों के इलाज के साथ-साथ गांवों से आए पेरेंट्स के रहने की व्यवस्था भी की। इसे Home away home यानी घर से दूर अपना घर नाम दिया।

कैंसर के बाद तलाक ने दी तकलीफ

जब मैं कैंसर से जूझ रही थी तब मेरे पति दीवार की तरह मेरे साथ खड़े थे। हम दोनों की मुलाकात कॉलेज के दिनों में हुई थी। हम दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे लेकिन कुछ कारणों की वजह से हमने अलग होने का फैसला किया। 2008 में हमारा तलाक हो गया। कैंसर के बाद वह मेरे लिए दूसरा सबसे मुश्किल दौर था। लेकिन मैं मानती हूं कि जो होता है अच्छे के लिए होता है। मैं बच्चों के साथ ही अपने बुजुर्ग मां-बाप की लाठी भी हूं। मैं खुद को खुशनसीब मानती हूं कि मेरे पास इन लोगों का प्यार और साथ है। लेकिन डिवोर्स के बाद भी मेरा हस्बैंड से मनमुटाव नहीं है। वह आज भी मेरे दोस्त हैं।

3 महीने के छोटे बच्चे को कैंसर से जूझते देख इमोशनल हो गई

कैंसर ऐसी बीमारी है जो 1 दिन के बच्चे को भी हो सकता है और 16 साल के बच्चे को भी। छोटे बच्चों में ज्यादातर न्यूरोब्लास्टोमा (कोशिकाओं में पाया जाता है) और विल्म्स ट्यूमर (किडनी में पाया जाने वाला कैंसर) पाया जाता है। मैं कैंसर से जूझते हर उम्र के बच्चे से मिली हूं। पहली बार मैं 3 महीने के बच्चे से मिली जिसे न्यूरोब्लास्टोमा था। उसे देखकर मैं इमोशनल हो गई लेकिन उससे ज्यादा मुझे उस बच्चे की मां पर तरस आया। एक मां की तकलीफ इससे ज्यादा और क्या हो सकती है कि उसके बच्चे को कैंसर है। मैंने न केवल बच्चों का इलाज करवाती हूं कि बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर बनाकर सक्षम भी बनाती हूं। रितु और चंदन नाम के दो बच्चे हैं जिन्हें मैं 11 साल की उम्र से जानती हूं। मुझे खुशी है कि आज वह ठीक हैं और नौकरी कर रहे हैं।

बेटी को कैंसर है तो पिता छोड़ देते हैं साथ

हमारे देश में लड़के और लड़कियों में भेदभाव आज भी होता है। अगर बेटी को कैंसर हो जाए तो घरवाले उसका इलाज नहीं करवाते। यही, मैंने ऐसे कई मामले देखे जहां बेटी को कैंसर हुआ तो पिता ने बेटी समेत मां को ही छोड़ दिया। मैंने ऐसी कई महिलाओं का हाथ थामा और उनकी मदद की। आज मेरी संस्था में करीब 70 ऐसी मांएं हैं जो अब हमारी स्वयंसेविका हैं। वह पैसा भी कमा रही हैं और सम्मान से अपनी कैंसर को मात दे चुकी बेटियों के साथ खुशहाल जिंदगी जी रही हैं। मैं हमेशा महिलाओं को कहती हूं कि अपना ध्यान रखना सीखो, अपनी काबिलियत बढ़ाओ और अपने बच्चों तक सीमित मत रहो। समाज और देश की तरक्की के लिए आगे कदम बढ़ाओ।

बच्चों का कैंसर 90% ठीक हो जाता है

चूंकि मैंने बच्चों की मदद करने की प्रतिज्ञा ली थी इसलिए मैंने केवल बच्चों के इलाज पर फोकस किया। इसके अलावा अगर बच्चों में कैंसर पाया जाता है तो उनके 90% ठीक होने के चांस होते हैं जबकि अगर बड़ों में कैंसर पाया जाता है तो उन्हें ठीक होने के 55% ही चांस रहते हैं।