मानव मन
स्वयं उगाता निज अभ्यारण्य, आजीवन करता फिर विचरण, नेत्र बंद कर ,पथ निर्धारण। चित्र विचित्र कितना मानव मन।
फीचर्स डेस्क। चित्र विचित्र कितना मानव मन।
स्वयं उलझ उलझा कर जीता,
सीधा सादा सा यह जीवन।
चित्र विचित्र कितना मानव मन।
स्वयं उगाता निज अभ्यारण्य,
आजीवन करता फिर विचरण,
नेत्र बंद कर ,पथ निर्धारण।
चित्र विचित्र कितना मानव मन।
स्वयं स्वयं का कीर्ति गान कर,
खुद को सबसे श्रेष्ठ मान कर,
औरों से चाहे पद वंदन।
चित्र विचित्र कितना मानव मन।
आगत भय से सदा सशंकित,
और अतीत से प्रति पल विचलित,
जीवित ही जीवन से पलायन।
चित्र विचित्र कितना मानव मन।
संधान नये लक्ष्यों का प्रति पल,
दिशा हीन तृष्णा से घायल,
प्राप्त सभी फिर भी लोलुप्तम।
चित्र विचित्र कितना मानव मन।
स्वयं उलझ उलझा कर जीता,
सीधा सादा सा यह जीवन।
इनपुट सोर्स - अनिता बाजपेई,मेंबर फोकस साहित्य ग्रुप