सौत...

सौत...

फीचर्स डेस्क। मेरी शादी जबर्दस्ती की थी वो भी मेरी स्वर्गवासी सगी बहन के पति के साथ बाँधा गया था जो पहले मेरे जीजाजी थे अब पतिदेव बने थे ऐसे में अंदर ही अंदर अंगीठी की भाँति सुलग रही थी चाहकर भी असमर्थ महसूस करती रहती कि बलि का बकरा बनना पड़ा दीदी के दो मासुम बच्चों को देखने  के लिए,  इनका क्या कुसूर था जबकि अबोध बालक थे दोंनो,  एक बेटा नौ बरस का सहज दूसरा सात साल का सबल । दोंनो के लिए मासी थी  मैं लेकिन अब माँ का दारोमदार था  मेरे अधीन। खैर, दोंनो के देखभाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ा था फिरभी जीजाजी को पति का दर्जा नहीं दे पाई थी।

अक्सर पापा आते रहते , दोंनो के लिए चॉकलेट और जरूरत की चीजें भी लाते , जिससे मुझे कोफ्त होता और पापा से सीधे मुँह बात भी नहीं करती थी इसलिए  पापा को  भी मेरी नाराजगी का भान था लेकिन बस मौन भरी नजर से देखते रहते लेकिन मैं मुँह फेर लेती थी । आखिर कब तक ऐसे चलता , अपनी बहन के जाने का गम मनाती या दो बच्चों की माँ बनने की खुशी को महसूस करती। अपना फर्ज निभा रही थी लेकिन पत्नी धर्म का पालन नहीं कर सकी , मैं दोंनो बच्चों के साथ सोती और दूसरे कमरे में जीजाजी सोते।

एक दिन सबल और सहज स्कूल गए थे और मैं सिलाई मशीन निकाल कर उधड़े हुए कपड़ों का मरम्मत कर रही थी कि अचानक से जीजाजी आ गए और ड्राइंगरूम के सोफे पर निढाल हो पड़ गए। क्या हुआ आपको , पूछा तो बोले कि ऑफिस में चक्कर आ रहा था इसलिए ब्रेक लेकर घर आ गया । सिर छूने पर देखा कि तेज बुखार है ऐसे में जल्दी से एक पैरासिटामोल की गोली दी और पापा को फोन किया कि जल्दी से आ जाए ताकि मैं जीजाजी के साथ अकेली ना रहूँ। सुनकर पापा तत्काल आए और उन्हे डाक्टर के पास ले गए। कुछ दिन में वो स्वस्थ होकर ऑफिस जाने लगे तब पापा अपने घर  गए ।

 इस तरह जीवन के दस बरस बीत गए थे । सहज इंजीनियरिंग के प्रथम साल में प्रवेश कर बाहर पढ़ने चला गया  और सबल भी दो साल में कानून की पढ़ाई करने जयपुर चला गया । फिर मैं अकेले हो गई थी ऐसे में खाली खाली सा घर लगता , दोनों को सँभालते हुए बारह बरस बीत चुके थे । अब पापा भी नहीं रहे थे इसलिए अब मैंने टाइम पासिंग के लिए एक विद्यालय ज्वाइन कर लिया था लेकिन रात में इसी घर में लौटना था और जीजाजी का साथ कचोटता था , महसूस होता कि जैसे अपनी दीदी की सौत बन गई हूँ लेकिन पति के अधिकार से जीजाजी वंचित थे जिसे कभी दे ही नहीं पाई। वो हमसे पंद्रह साल बड़े हैं तिस पर पापा की जोर जबरदस्ती कि दोनों बच्चे अनाथ हो जाएंगे , मौसी उस घर में माँ बनकर जाए तो दोनों अबोध का जीवन सँवर जाए। आज दोनों बच्चे कमा रहे हैं अपनी अपनी पसंद की लड़की से विवाह किए हैं और मेरा मान सम्मान भी करते हैं ।

एक बात और, जीजाजी ने हमेशा मेरा आदर किया था ,पति के रूप में नहीं बल्कि एक भाई के रूप में। भले ही दुनिया की नजर में हम पति पत्नी थे लेकिन घर के अंदर हम अभिमति से रिश्ते निभा रहे थे और वो मेरे पापा के दबाव से विवाह किए थे और मेरा ख्याल अपनी पत्नी के छोटी बहन के रूप में करते रहे।

इनपुट सोर्स : अंजू ओझा, पटना, मौलिक स्वरचित।