यादों का संदूक

जिसकी धूल झाड़ने से छींक नहीं चेहरे पर मुस्कान आती है …

यादों का संदूक

फीचर्स डेस्क। माँ का घर साफ करना...यादों की सतहों से धूल झाड़ना होता है। माँ अपनी पोटली में कितनी चीजें छिपा लेती हैं, जिनका यूं दुनिया के लिए मोल नहीं पर भावनाओं के लिए अनमोल है। अभी माँ अलीगढ़ में हैं, मैं पीछे से उनका घर साफ कर रही हूं....पहले पहल लगा था घर में हर तरफ अटाला ही तो बिखरा है...माँ भी ना...इशू-आयुष के साल-दो साल की उम्र के कपड़े तक संभाल कर रखें हैं। आखिर क्यों? इसी तरह कई टंकियों में भरे बर्तन, उनमें से कुछ टूटे-आड़े-तेड़े से तो कुछ कीमती बोन चायना भी सजावटी सामान, चादर...कपड़े ना जाने क्या-क्या। दिमाग देखकर चकरा रहा था, आखिर कहां से साफ करुं।किस तरह साफ करूं।  

बड़ी-बड़ी टंकियां, मर्तबान देख कह भी दिया था, माँ अब कहां रहें बड़े परिवार, अब कहां सालभर का अनाज रखा जाता है। माँ की यादें भी जिंदा हो गईं, वो सारी टंकियों का जो करना है करना, कनस्तर अलग मत करना। ऐरोप्लेन में लगने वाले मटेरियल के बने हैं। बहुत हल्के मजबूत, होलडाल के हैं। किसी के घर देख तुम्हारे पापाजी ने बनवाए थे ताकि दाल-चावल-आटे के कनस्तर उठाने में तुम्हारी माँ को दिक्कत ना हो। मैंने एक नजर उन कनस्तरों को देखा, चेहरे पर मुस्कान, आंखों में पापा जी का चित्र तैर गया। आखिर उन्हें छोटी-छोटी बातों, छोटी-छोटी-छोटी तकलीफों, परेशानियों का इतना ध्यान जो रहता था। 

उन्हें एक तरफ रख बड़ी मुश्किल से माँ को मनाया कि हमारे लिए गैरजरूरी सामान किसी के लिए जरूरी होगा। अलग करने दीजिए। वो भी थोड़े गुस्से के बाद मान गईं, आखिर माएँ हमेशा ऐसी ही तो होती हैं। भोली-मासूम सी, जल्दी से मान जाने वाली। हर बात मान जाने वाली। ये बात अलग है कि हर सामान को अलग करते समय थोड़ा मन मेरा भी दुखा लेकिन-लेकिन माँ के सामान में ही जब एक पुराना सा लोहे का संदूक खुला। तो लगा संदूक नहीं मेरा बचपन खुल गया है। 

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एक बड़ी सी पॉलीथिन में शील्ड्स का टूटा-फूटा सा जखीरा था, जो स्कूल-कॉलेज के समय भाषण-डिबेट में जीते थे। पापा के जाने के बाद कोई स्थायी घर ना रहा तो मुझे लगा था, ये सब खो गई होंगीं। विदेश जाते समय जरूरी प्रमाण पत्र तो मैंने संभाल कर फाइल में रख लिए थे, पर माँ हर आड़ी-तेड़ी हो चुकी शील्ड-ट्राफी को भी अपने लोहे के संदूक में संभाले रखी थीं। इसी संदूक में मुझे मैक्रम से बनाया उल्लू मिला। सेंट जोसेफ स्कूल की क्राफ्ट क्ल़ॉस में बस यही तो बनाया था। बनाया भी अपनी ही तरह उल्लू था। शुरू से पसंद जो था...सफेद-शफ्फाक उल्लू। यह भी याद है कि हैरी पॉटर देख मैं बड़ी चहकी थी कि हैरी के पास भी सफेद उल्लू है। मेरे पास तो बचपन से था, वो भी खुद का बनाया। सातवीं कक्षा में मैक्रम से जाल बुनकर उसे उल्लू की शक्ल देना जादू ही तो था। इस जादू को मैं खो चुकी थी पर माँ के पिटारे में यह जादू भी बरकरार था।

इसी संदूक में मेरा अलादीन का चिराग भी था। अपने लड्डू (शिव) की आऱती उतारने वाली इस समाई को मैं अलादीन का चिराग ही कहती थी। मन में जो भी आता इस चिराग से ही बोल देती थी औऱ फिर क्या? एक-एक कर मैं सारा कबाड़ हो चुका सामान माँ के घर से अपने घर ले आई..क्यों भला? बस इसलिए क्योंकि यह कबाड़ नहीं...यादें हैं...औऱ यादों के सब जुगनू जंगल नहीं अब घर में रहते हैं।