में स्त्री हूँ सब जानती हूँ
में स्त्री हूँ सब जानती हूँ
रास्तों में उलझने लगी थी मगर
अब ज़िन्दगी को समझने लगी हूँ।
मौत के इन्तज़ार में ही सही
ज़िन्दगी अब जीने लगी हूँ।
मंज़िल की ज़ुस्तजु नहीं सही
मगर अब नयीं ख़्वाहिशों करने लगी हूँ।
कभी लम्हों को झेल जाती हूँ,
कभी लम्हों से ही खेल जाती हूँ।
मुश्किल वक़्त से घबरा जाती हूँ,
मगर अब वक़्त को पहचान जाती हूँ।
डरतीं हूँ रोज़ के इम्तिहानो से
मगर जीत जाने की ख़ुशी रोज़ चाहने लगी हूँ।
ज़िन्दगी माना नहीं कोई उम्मीद तुझसे
मगर तेरी ख्वाइश हर रोज़ करने लगी हूँ।
इनपुट : शहला जावेद, मेम्बर फोकस साहित्य।