परिन्दों का घर

परिन्दों का घर

फीचर्स डेस्क। "इतने बड़े घर में हम दो प्राणी, आजकल तो नौकर भी मक्कार हो गए हैं। पैसे पूरे दो, काम धेले भर का नहीं, छुट्टियां तो इनका अधिकार हो जैसे। कबसे कह रही हूँ बंगले को रिनोवेट कराके आधा हिस्सा किराए पर उठा दो, पर मेरी सुनता ही कौन है.." चाय और अखबार के साथ सुमनजी का यह रोज का प्रलाप सुदर्शन जी को झेलना ही होता था।

वे गहरी निःश्वास ले उठे, लॉन के कोने में पेड़ की कलाकृति उकेरी टेबल और कुर्सियां, मनु और मीतू यहाँ पढ़ते हुए सर्दियों की कुनकुनी धूप सेंकते, गर्मियों में सुबह शाम ठंडी हवा की थपकियाँ खाते। उनके कमरे भी क्या खूब सजाए थे उन्होंने, एक से एक बढ़िया चीजें। उनके दोस्तों का जमघट भी लगा रहता था। सर्दियों  में भरवाँ परांठे मक्खन के साथ, बारिश में अदरक वाली चाय के साथ पकौड़े और गर्मियों में तरह तरह के शर्बत और सत्तू सबकी विशेष पसन्द होती। सुमनजी को बनाने और खिलाने का शौक जो था। गुजरते वक़्त के साथ मीतू ससुराल चली गयी और मनु भी सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनकर बड़े शहर में सेटल हो गया। घर के एक एक कोने में तो बच्चों की यादें हैं, ऐसे कैसे सौंप दें किसी और को। वे न तो घर के हिस्से करना चाहते थे और न ही अपनी जमीन को छोड़ शहर में बेटे के यहाँ जाने को तैयार होते थे।

अचानक उनकी नजर ऊपर लैंप पोस्ट पर बने घोंसले पर   गयी। सूना सूना लगा आज, कोई चूं चूं ची ची नहीं। चिड़ा चिड़ी को एक एक तिनका जोड़ते, जतन से घोंसला बनाते देखा था उन्होंने। छोटे छोटे बच्चों को चुग्गा खिलाते, उड़ना सिखाते, सब कुछ तो वे तन्मयता से देखते रहे हैं, फिर आज...?

"मालिक बच्चे बड़े होकर उड़ गए.. " उनकी नजर का पीछा करता बगीचे में पानी देता माली बोला।

"और चिड़ा चिड़ी?"

"अब वे क्यों आएंगे।"

"ह्म्म्म..."

 "मनु अगले महीने तू ज्यादा छुट्टी लेकर आना, सामान की पैकिंग जो करनी रहेगी।"

सुदर्शनजी को फोन पर बेटे से बात करते देख सुमनजी मुस्कुरा उठी।

 input : डॉ वन्दना गुप्ता