कुछ बदला है क्या

कुछ बदला है क्या

नई दिल्ली। सुबह से अखबार, न्यूज और ऑन लाइन लगातार हर मिनट याद दिला रहे हैं, आज 16 दिसंबर है। दस साल पहले आज के दिन रात को दिल्ली में निर्भया कांड हुआ था। इतने सालों बाद क्या बदला? कुछ बदला भी है क्या? कल की बात है। दिल्ली में एक लड़की पर एक दिलजले लड़के ने एसिड अटैक किया। जाहिर है, जितना आक्रोश था दस साल पहले, जितना कुछ होना था, कुछ नहीं हुआ। बुनियादी तौर पर एक परिवर्तन देख रही हूं, बस और सड़कों पर छेड़खानी की घटनाएं कम हो गई हैं। लड़कियां पलटकर वार करने लगी हैं, बोलने लगी हैं। बोलने का तेवर तो आ गया है, पर बचने का तेवर? वो कैसे और कब आएगा? चाहे निर्भया हो या कल की एसिड अटैक विक्टिम, बुनियाद में एक ही बात है, वे लड़के जो लड़कियों की ना बर्दाश्त नहीं कर पाते। उन्हें सिखाया ही नहीं गया, उनके डीएनए में ही नहीं है कि लड़कियां भी एक अलग जीती-जागती प्राणी है, उनकी भी पसंद-नापसंद, हां-ना कहने का हक होता है।

अब बात थोड़ी अलग, दो दिन पहले मैंने ओटीटी पर डॉक्टर जी फिल्म देखी। आयुष्मान खुराना की यह फिल्म् औसत है। पर इसमें मुद्दे की बात एक ही लगी, हीरो का इगो जो लड़कियों की ना सुन कर हर्ट हो जाता है, कैसे वो लड़कियों के प्रति सेंसिटिव होता है। फिल्म् में नायक गायेनकॉलोजी पढ़ते-पढ़ते यह सबक सीखता है कि लड़की का शरीर और मन कैसे  काम करता है। असल जिंदगी में हम यहां तक क्यों जाएं? याद है, जब हम छोटे थे तो क्लास पांच तक नीति शास्त्र का विषय पढ़ते थे, इसकी परीक्षा भी होती थी। फिर ये विषय कोर्स से हटा दिया गया। मेरा मानना है कि चाहे स्कूल प्राइवेट हो या सरकारी, सरकारी में ज्यादा क्योंकि उन बच्चों को घर में सेंसिटिव बनने का संस्कार कम मिलता है, एक विषय पढ़ाया जाना चाहिए, जेंडर सेंसिटिविटी के बारे में। उन्हें बताया जाना चाहिए

1 लड़कियां दूसरे ग्रहों से नहीं आईं। लड़कें लड़कियां एक जैसे हैं। दोनों की इज्जत होनी चाहिए।

2 सेंसिटिव बनाने के लिए लड़कों को वो सारे काम सिखाए जाएं तो अमूमन मानते हैं कि लड़कियों का डोमेन है। और लड़कियों को बलिष्ठ बनाया जाए।

3 मानसिक तौर पर पांच साल की उम्र से दोनों के मन में बिठाया जाए कि आपस में इगो जैसा कुछ नहीं होना चाहिए। दोनों का अस्तित्व स्वतंत्र है, एक से हक हैं और एक सी जिंदगी जीनी है।

4 लड़कों को कई तरह से यह समझाना चाहिए कि लड़कियां उनकी जागीर नहीं, उनके मन और शरीर पर उनका कोई मालिकाना हक नहीं। उनकी ना ना है और हां हां। उन्हें इस बात के लिए सेंसिटव बनाना होगा कि अगर उन्हें कोई लड़की नहीं मिल रही, तो वो कुछ ऐसी ही बात है जैसे रेस्तरां में पसंदीदा खाने का ना मिलना, कॉलेज में मनपसंद विषय का ना मिलना। इसे सरल बनाना होगा। लड़कों को घर और बाहर यह समझाना होगा कि अपने अलावा उनका किसी पर कोई हक नहीं। किसी के पीछे भागना, टॉर्चर करना और उससे भी बड़ा कांड अपराध की श्रेणी में आता है।

5. नीति शास्त्र के बहाने लगातार यह बताते रहना होगा कि बुरे काम का नतीजा बुरा ही होता है। अपराधों का महिमामंडन हर लिहाज में बंद करना होगा।

6. अगर आपके आसपास परिवार या कॉलोनी का कोई बच्चा या किशोर ऑब्सेस्ड या सुपर इगो में है तो उस बच्चे की तुरंत काउंसलिंग कीजिए।

7. बच्चों को तैयार कीजिए कि अगर उनके ग्रुप में कोई बच्चा किसी भी लड़की या लड़के को बुली करता नजर आए तो उसे समझाएं, टीचर को बताएं। लड़कों को सेंसिटिव करने की जिम्मेदारी सिर्फ परिवार की नहीं, मोहल्ले और स्कूल की भी है। पर हां, उससे पहले आपको खुद सेंसिटिव होना होगा। घर और बाहर ऐसा माहौल तैयार करना होगा जहां बच्चे जेंडर सेंसिटिव बन सकें। हार को स्वीकार सकें। अपनी लड़ाई अपने आप से लड़ सकें। अगर आज हम इसके लिए तैयार हैं तो दस साल बाद शायद आज के दिन इतनी खौफनाक खबर पढ़ने-सुनने-देखने को शायद ना मिले

इनपुट सोर्स : जयंती रंगनाथन, वरिष्ठ लेखिका, नई दिल्ली।