सुनो न...
फीचर्स डेस्क। मुझे समझने और पढ़ने के लिए तुम्हें अभिव्यक्तियो के अथाह सागर में डुबकी लगानी होगी।तल तक जाना पड़ेगा तुम्हें।तब तक अभिव्यक्तियो का खारा पानी तुम्हारा पूरा वजूद नमकीन न कर दें..!
जब तक तुम्हारे कान में रेतीली नमक अभिव्यक्तियो के शोर को आत्मसात न करा दें.!
आँखो में नमक जब तक अभिव्यक्तियो कि नमी में सैलाब न भर दे...!
चख कर देखना तुम कभी उन जरूरत से ज्यादा खारी बातो का स्वाद,उल्टियों का सिलसिला जारी रहेगा तब तक जब तुम्हारे ज़ेहन की जीभ में नमक का खारापन संतुलित न हो जाए..!!
आसान नही है समन्दर सा खारा होना। देखा है कभी उसमे उन्मुक्त तैरती रँगबिरंगी मछलियों को, हरे भरे शैवालों को।
देखना और उतरना छू लेने उन्हें तुम जब कभी उतरो तुम समन्दर के गहरे खारे पानी मे...!
यक़ीनन याद आऊँगी मैं..!
एक परजीवी सी बन तुम्हारे आँखो में बेख़ौफ़ समा गई थी मैं, उन्ममुक्त होने उतर आई थी मैं। परवाह ही नही की थी तुम्हारे पलके बंद होने के बाद के अंधेरे की,विश्वास था कि एक मुक्त उजाला है कहीं जो महफ़ूज़ रखेगा हर अंधेरे से..!!
अभिव्यक्तियो के अथाह गहरे सागर में हिम्मत नही थी उतरने की,की एक दिन हौले से हाथ थामते ले गए थे शब्दो की लहरों के बीच समन्दर में, औऱ छोड़ दिया था हाथ,की जाओ जी भर तैर लो। मैं हर लहर सा खड़ा हूँ तुम्हे बचाने हर बवंडर से। बग़ैर सोचे आगे बढ़ चली थी उन अभिव्यक्तियो की गहराई में।
अनुभूतियों की बड़ी मछलियाँ थी, हर विधाओं की शार्क भी कई सारी। मैं नई थी।सब ताक रही थी गुस्से में ,कुछ ईर्ष्या से भरी,कुछ द्वेष से। वजह तुम्हारा हाथ थामना बर्दाश्त के बाहर जो था।
डर नही था जानती थी एक नैया रुपी बड़ी सी लहर मुझे थामे हूए है...!
की अचानक तुम ग़ुम हो गए.घबरा गई थी मैं। बाहर निकलना आसान नही था।सब रहस्मयी मुस्कान से देख रहे थे।खारा पानी आँखो को तकलीफ़ देने लगा था। उल्टियों का सैलाब थम नही रहा था बस उसी उथलपुथल में ग़लती हुई मुझसे।
घबराकर पूछ बैठी तुम्हारा पता..! (साहिल)
कई मछलीयाँ आई अपनी अभिव्यक्तियां सुनाई ओर चल दी।दो एक मुझसी थी। कुछ उनकी सुनी कुछ अपनी कही..!
अभिव्यंजना को अपने तक सीमित रखने को कह खारे समन्दर में खो गई।
आक्रोश था, तो अभिव्यक्तियो को अवाज़ मिली थोड़ी बुलंद हुई, चोटहिल थी शब्द व्यंजना। आकार नही दे सकती थी।तो थोड़ी गुस्ताख़ हुई। दर्द बढ़ चला था,उम्मीदे धाराशाही तो मन के एक कोने में हल्की गलतफहमी पनपी साधारण सी रचना थी मैं पता नही आक्रोशित होकर कब व्यंग बनी।
मुश्किल से समन्दर से बाहर आई लहूलुहान साँसों पर विजय हासिल कर। आज तरक़्क़ी हुई थी।मैं लड़ना सिख गई थी। किनारे बैठ देखा तो ताज़्ज़ुब हुआ था।क्या इतने गहरे समन्दर में उतरने की हिम्मत कैसे कर पाई थी मैं।यक़ीनन मेरा यकीन ईमानदार था।
बाहर तो आ गई थी परत जिस्म नमक के रेत से छिल गया था, रूह पर छाले थे।घुटन दर्द भी थी, पर देखो न आँखे अब भी तुम्हे ढूँढ रही थी। वे मछलियां औऱ शार्क भी मौजूद थी। बेहद नज़दीक तुम्हारे।
मोती लिए दूर खड़ी थी तुम्हे देने की चाह लें, पर सफेद पट्टी थी आँखो पर तुम्हारे कहाँ से दिखती मैं तुम्हें
आज भी खड़ी हूँ उस समन्दर के पास उस विश्वास के टीले पर जहां अभिव्यक्तियो की लहरें आज भी आतुर है तुमसे मिलने के लिए। पर मत्स्य गन्ध तुम्हारे सम्पूर्ण अस्तित्व को घेरे हुए हैं।
अधूरी नज़्में लिए मैं बहुत कुछ कहने को खड़ी थी पर सुनो मैं फिर उतर रही हूँ उस खारे समन्दर में अपनी अभिव्यक्तियो के सँग। तुम्हारे दिए आदेशानुसार। जब उतर जाए मत्स्य गन्ध तुम्हारे अस्तित्व से, तब उतार आना वह श्वेत पट्टी आँखो की औऱ सुनो धो लेना अपने कान जो भरे पड़े हैं नफ़रतों के शैवालों से..!
मैं तुम्हे प्रेम में अभिव्यक्त कर सकती हूँ तो हक्क से नफरत औऱ आक्रोश के जाल में लपेट सकती हूँ। जानते हो इस खारे अभिव्यक्तियो के समंदर में शब्दों के दलदल भी है।जहां हलचल प्रतिबन्धित है वजह जितनी हलचल उतना धसना तय..!!
शब्दो के जाले इतने सशक्त की उलझते ही रहो सुलझने की कोशिश में सिर्फ उलझना तय।
सुनो न मैं समतल जमीन की एक #प्राजक्ता थी जो मन मुताबिक झरती थी। पल भर सही न जाने क्यों तुम मुझे समन्दर का शैवाल बनाने चले आए थे अचानक।
की देखो मेरा पूरा अस्तित्व बदल दिया तुमने। इस बेदर्द अभिव्यक्तियो के खारे समन्दर में।
अब पढ़ो तो उतरना पड़ेगा तुम्हे इस गहरे नमकीन पानी मे।जहां एक द्वंद्व जारी है मेरी वेदनाओं का, तुम्हारे जाने से अब थोड़ा ख़ुद को समझने लगी हूँ मैं। अभिव्यक्तियो को नए आयाम देने लगीं हूँ मैं। फर्क नही पड़ता कौन किस तरह से क्या कहता है।
मायने रखता हैं कि तुम कितना यकीन करते हो।
खारा पन गलाने लगा है मुझें पर तुम्हारा आदेश हैं तो खारे पानी के अभिव्यक्तियो के समन्दर में फिर समा रही हूँ मैं..!!
सुनो इस बार फिर अप्रत्यक्ष रुप से शामिल हो एक आदेश बन
एक मन की अभिव्यंजना ऐसी भी
इनपुट : स्वरा