सिसक रही सूखी नदिया सी

मैं तो पगली विरह वेदना बस कुछ आखर की पाती हूँ आंसू बनकर ना छलक पड़े मैं दुख को राह दिखाती हूँ....

सिसक रही सूखी नदिया सी

आस

 

वियोग व्योम सा विस्तृत होकर मन की धरती को है घेरे।

आस लगी है जिस जिस जन से खड़े हुए हैं आंखे फेरे।

तुम पर अवलंबित गीत लिखे जो क्या है उनका सार बता दो,

लय गति सब भूल गयी मैं अब आ जाओ इक बार बता दो,

सिसक रही सूखी नदिया सी पल पल क्षण क्षण सांझ सवेरे।

 

आस लगी है जिस जिस जन से खड़े हुए हैं आंखे फेरे।

 शब्दों की सब भूलभुलैया कैसे अपनी बात कहूँ मैं

अर्थो की उलझी शैया पर कैसे निष्ठुर ताप सहूँ मैं

व्यंजित वो कैसे होंगे जो मन में डोलें भाव घनेरे।

आस लगी है जिस जिस जन से खड़े हुए हैं आँखे फेरे।

 

मैं तो पगली विरह वेदना बस कुछ आखर की पाती हूँ

आंसू बनकर ना छलक पड़े मैं दुख को राह दिखाती हूँ

दुखी नहीं है दुख भी मेरा इसने झेले वार भतेरे।

आस लगी है जिस जिस जन से खड़े हुए हैं आँखे फेरे।

इनपुट : निधि भार्गव मानवी, मेम्बर फोकस साहित्य ग्रुप।