लघु कथा : वोह आंखें

ऐसे ही डरते, सम्मान करते करते अनिल पंद्रह साल का हो गया। एक दिन मंछाराम फैक्ट्री से घर लौटे, तो उन्हें अपने घर के एक कमरे में से ज़ोर ज़ोर से हसी ठहाकों की आवाज़ आई, अनिल के कमरे में देखा तो.....

लघु कथा : वोह आंखें

फीचर्स डेस्क। मंछाराम चालीस वर्षीय, नेकदिल, प्रामाणिक और स्वाभिमानी व्यक्ती थे। परिवार में उनके अलावा बस उनकी पत्नी थीं। अपनी कोई औलाद नहीं थी, तो अपने भाई के बेटे अनिल को गोद लिया था।  अनिल पांच साल का था। अच्छी पाठशाला में उसका दाखिला करवाया।

उनकी साबुन कि फैक्ट्री थी। कारीगरों से काम करवाने के लिए, उनकी आखों का अंदाज़ ही काफी था, वो लोग समझ जाते मालिक क्या चाहते हैं। अनुशासन का उनके जीवन में बड़ा महत्व था, जिसका पालन बीवी और बच्चा(अनिल) भी करते। वो जब घर पहुंचते तो चाहते की बच्चा घर पर ही रहे, ताकी लौटते हुए लाए फल उसे अपने हाथों से काटकर, पास बिठाकर खिलाएं। लेकिन अनिल कभी उनसे नज़रें न मिलाता, सम्मान करता था उनका, शायद डरता उनसे। ऐसे ही डरते, सम्मान करते करते अनिल पंद्रह साल  का हो गया।  
एक दिन मंछाराम फैक्ट्री से घर लौटे, तो उन्हें अपने घर के एक कमरे में से ज़ोर ज़ोर से हँसी ठहाकों की आवाज़ आई, अनिल के कमरे में देखा तो, अनिल और उसके हम-उम्र दोस्त गप्पे लगा रहे थे, किताबें बिखरी हुई  पड़ी थीं, साथ ही बाकी समान भी बिखरा हुआ था। वोह बहुत क्रोध में आ गए और अनिल पर बरस पड़े।

“ये सब क्या हो रहा है मेरे घर में?“ उनकी आंखें गुस्से से लाल हो गई थीं, अनिल डर गया। दोस्त चले गए। उनकी पत्नी ने  बहुत समझाया कि "आखिर ऐसा क्या गुनाह कर दिया बच्चे हंसी मज़ाक हो कर रहे थे सभी मिलकर" पर मंछाराम किसी की बात सुने तब न!! शाम होते ही चाचा जी ने अनिल से रोज़ की तरह बात की  और हमेशा की तरह अपने साथ खाना खाने बिठाया।मगर वो आंखें देखने के बाद अनिल सहम सा गया सा गया था । ना खाता ना कुछ बोलता। वो आखें उसे नींद में भी डराती। एक दिन वो बिना किसी को बताए घर छोड़कर चला गया वापिस अपने घर। 

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कई साल बीत गए, अनिल ग्रेजुएट हो चुका था, मन ही मन अपने बाबूजी( चाचा जी)  को बहुत  याद करता। एक दिन अचानक उन्हें मिलने जा पंहोचा।वो मिले, लेकिन चारपाई पर, शरीर अब कमज़ोर हो गया था। कुछ उम्र का तकाज़ा और कुछ वक्त की मार थी। अनिल को देख के उनकी आखों में एक चमक आ गई, बाप बेटा, गले लग कर बहुत  रोए, बहुत खुश हुए। अनिल ने उनके आसुं पोंछे, देखा कि अब उन आखों में वो बात ही नहीं थी जिससे डरकर वो भाग गया था। शायद उम्र का तकाज़ा था या बेटा खो देनेका आघात।

इनपुट सोर्स: सुशीला गंगवानी