लघु कथा: पर उपदेश कुशल बहुतेरे

दूसरों को देने से पहले खुद को दिए गए उपदेश दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ सचमुच बदलाव ला सकते हैं। पर उपदेश कुशल बहुतेरे के वाक्य को, उसकी गहनता को समझते हुए जरूर सोचना चाहिए कि उपदेश किसे देने हैं। स्वयं को या दूसरे को। क्योंकि अगर बदलाव चाहते हैं तो पहले स्वयं को बदलकर दिखाना पड़ेगा। जैसे एक बीमार व्यक्ति यदि स्वास्थ्य संबंधी उपदेश दे तो उसकी बात कोई नहीं मानेगा....

लघु कथा: पर उपदेश कुशल बहुतेरे

फीचर्स डेस्क। सुबह-सुबह मोबाइल लेकर बैठ गए तनु को पिता ने जोर से डाँटते हुए कहा अभी तो तुम्हारी ऑनलाइन क्लास का समय भी नहीं है। रखो नहीं तो फिर  तुम्हें क्लास करने को भी मोबाइल नहीं मिलेगा। श्रीनाथजी तनु को डपट कर स्वयं मोबाइल ले कर बैठ गए। यही नहीं तनु की मम्मी भी सुबह सुबह गुड मॉर्निंग मैसेज में लगी हुई थीं। अब कौन बताए श्रीनाथजी को बच्चों को डाँट भर देने से बात नहीं बनती। बच्चे तो बड़ों से ही सीखते हैं।

अब सतीश जी को भी देखिए कार्यालय से लौटते वक्त उन्होंने सुशांत को कुछ बच्चों की टोली में देख लिया था, जो शान से धुँए के गुबार उड़ा रहे थे। सभी के हाथों में सिगरेट थी। वे वहाँ जाकर  कान पकड़ कर उसे अपने साथ बिठाकर घर ले आए। जब बच्चे को सतीश जी ने ऐसी हरकत करते देखा तो वे गुस्से से आगबबूला हो गए लेकिन कभी उन्होंने स्वयं की इस आदत पर गौर नहीं किया आँखिर वो भी तो एक चेनस्मोकर हैं। कभी उन्होंने स्वयं को बदलने की कोशिश की जो बच्चों से उम्मीद करते हैं कि वह सीधे-साधे अच्छे बच्चे बने रहें?

श्रीनाथजी और सतीश जी जैसे एक नहीं अनेकों उदाहरण मिल जाएंगे, जहाँ पर स्वयं में अनेकों कमियाँ होने के बावजूद दूसरों से बेहतर होने की अपेक्षा की जाती है। अगर बिना दिए ही अच्छा मिल जाए तो अपना सौभाग्य समझिए। अन्यथा घर परिवार में तो प्रारंभ में बच्चे अपने बड़ों को ही अपना आदर्श मानते हैं। जब तक उनकी सोच बदलती है, तब तक देर हो चुकी होती है। यह तो रही घर परिवार की बात। घर में सुधार के हर पहलू पर आप इसे लागू कर सकते हैं। 

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अब बाहर देखते हैं यही हाल घर से बाहर समाज में भी होता है। स्वयं में धारणा किए बगैर लोग दूसरों को उपदेश देने लगते हैं। ऐसे उपदेश कोरे उपदेश मात्र रह जाते हैं। मजे की बात तो यह है कि कभी-कभी लोग अपने मुँह से तो कुछ नहीं कहेंगे लेकिन व्हाट्सएप मैसेज पर दूसरों को उपदेश देते हुए चित्र व संदेश भेज देंगे जिसे देखकर दूसरे खुश होने की जगह मुँह बनाते हैं। वे पहले तो व्हाट्सएप से बाहर निकल जाते हैं, फिर बात करना भी बंद कर देते हैं। इस तरह  तो संबंधों को खराब हो जाने की नौबत भी आ जाती है। क्योंकि वे संदेश किसी को बहुत गहरे तक चुभ जाते हैं। उन्हें ऐसा लगता है यह बात भेजने वाले ने उनके लिए ही कही है। कभी-कभी लोग करते भी ऐसा ही हैं। वे इस तरह बात भी कहेंगे फिर कहेंगे, मैसेज हमने तो नहीं लिखा था। दूसरों को उपदेश देते हुए प्रातः कालीन संदेशों से तो आपसी  रिश्तों में तो बचना ही चाहिए। कब किसका अहम् जागृत हो जाए और संबंध खराब हो जाएं। फेसबुक, टि्वटर, इंस्टाग्राम, शेयर चैट और न जाने क्या-क्या सभी उपदेशात्मक संदेशों से भरे मिल जाएंगे। लेकिन उनका असर भी नागाण्य ही होता है। 

किसी को देखकर व्यक्ति स्वयं से बदले तो बदलाव आ जाता है या फिर उसके भीतर की चाहना उसे खुद नियंत्रित करे और बदलने को मजबूर कर दे। दूसरों को देने से पहले खुद को दिए गए उपदेश दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ सचमुच बदलाव ला सकते हैं। पर उपदेश कुशल बहुतेरे के वाक्य को, उसकी गहनता को समझते हुए जरूर सोचना चाहिए कि  उपदेश किसे देने हैं। स्वयं को या दूसरे को। क्योंकि अगर बदलाव चाहते हैं तो पहले स्वयं को बदलकर दिखाना पड़ेगा। जैसे एक बीमार व्यक्ति यदि स्वास्थ्य संबंधी उपदेश दे तो उसकी बात कोई नहीं मानेगा। उल्टा हँसी में उड़ा देंगे, भले ही वह अनुभव के आधार पर दूसरे की चिंता करते हुए, कितनी ही उपयोगी बात क्यों न बता रहा हो, ताकि दूसरा उस परेशानी से बच जाए। देखा यह भी गया है कि लोग दूसरों के बताए की जगह, स्वयं ठोकरे खा-खाकर या अपनी ही समझ से ज्यादा सीखते हैं। कभी-कभी लोग एक ही बात भले ही वह उस व्यक्ति के लिए हितकारी क्यों ना हो, को बहुत बार कहते हैं तो सुनने वाला ऊब जाता है। प्रभावकारी ढंग से कही गई बात भी असर करती है। अब इतना कुछ लिख देने के बाद तो समझ आ ही गया होगा क्या उपदेश देने में समझदारी है या स्वयं पर लागू करने में।

इनपुट सोर्स : भारती दिशा