लघु कविता: ओढ़ ली चुनर,जिम्मेदारियों वाली

एक नई नवेली दुल्हन के मनोभावों को व्यक्त करती प्रतिभा सिंह की ये कविता, पढ़िएगा जरूर

लघु कविता: ओढ़ ली चुनर,जिम्मेदारियों वाली

फीचर्स डेस्क। माँ.. 

विदा हुई थी ओढ़ कर चुनरी 

वो तुम्हारी दुआओं वाली..

वो घर की मर्यादा वाली..

वो जिम्मेदारी वाली..

वो तुम्हारी नसीहतों वाली..

कहा था तुमने

रखना इसकी लाज।

कभी उफ्फ न करना 

कर लेना इसका लिहाज।।

तो लो माँ.. 

इसे ओढ़े बीतते गए

न जाने कितने दिन और साल।

इसके बोझ से झुकी जो पलकें 

उठीं ही नही जो देखे खुद का हाल।।

हाँ माँ..

झुकाकर खुद को मैंने

इस चुनर का मान बढ़ाया है।

लड़खड़ाई हूँ कई दफा मैं 

पर इसको गिरने से बचाया है।।

पर माँ..

इस जालीदार चुनरी ने बहुत दिया 

तो क्या..!!इसके जाल में उलझी रही मैं। 

ओढ़ कर,

उस दहलीज से इस दहलीज तक 

लंबा रास्ता तय कर गई मैं। 

तो क्या..!!अपने मन तक पहुंचने का 

छोटा सा रास्ता भूल गई मैं।। 

इनपुट सोर्स: प्रतिभा सिंह (लखनऊ)