समीक्षा : “चाक पर घूमती रही मिट्टी"

समीक्षा : “चाक पर घूमती रही मिट्टी"

फीचर्स डेस्क। इक्कीसवीं सदी में ग़ज़ल की लोकप्रियता अपने शीर्ष पर है ।इस का सबूत यह है कि अधिकतम समकालीन कवि ग़ज़ल विधा में सृजनरत हैं ।सबसे बड़ी बात यह है कि ग़ज़ल विधा में कवियित्रियों ने भी अपनी अभूतपूर्व उपस्थिति दर्ज की है और लगता है कि ग़ज़ल में अभिव्यक्ति के नए प्रतिमान स्थापित होंगे। पिछले एक दशक में जिन महत्वपूर्ण ग़ज़लकारों ने उल्लेखनीय सृजन किया है उनमें आराधना प्रसाद अग्रणी हैं ।उनका यह ग़ज़ल संग्रह इस तथ्य की पुष्टि करता है कि मूलतः हिन्दी भाषी कवि भी ग़ज़ल के पारम्परिक स्वरूप को समझकर न केवल नई शब्दावली वरन वर्तमान के जटिल भावबोध को अशआर में  बाँधने में सक्षम हैं ।दो पंक्तियों में कवित्व के मर्म को स्पर्श करते हुए अपनी भाषा के अनन्वेषित आयामों को उजागर करते हुए जादुई अभिव्यक्ति से सौंदर्य बोध को जागृत करने की कला दुर्लभ तो होती ही है मगर समर्थ कवि इस चुनौती को भी सहज ही स्वीकारते हैं और पाठकों को कविता के अद्भुत रूप से परिचित कराते रहते हैं । इस संग्रह की कुल 100 ग़ज़लों में कथ्य और कहन के अनेक प्रशंसनीय नमूने मिलते हैं ।कहते हैं ग़ज़लकार की सफलता इसी बात में है कि शे'र सुनने के बाद लगे कि वह बस यूँ ही हो गया होगा ।यह हुनर जगह - जगह इस संग्रह में देखने को मिलता है । अशआर में शब्द चयन और तारतम्य देखते ही बनता है ।कुछ अशआर देखिए

बस किनारों पे अकड़े बैठे हैं

कैसा ये पुल बना दिया हमने

कई किरदार पर्दे पर नहीं हैं

मगर ग़ायब नहीं हैं दास्तां से

आराधना जी की दृष्टि अपने आसपास पर सूक्ष्मता से फ़ोकस करती है और उनमें से अपने अशआर के लिए विषयवस्तु चुनती हैं ।ग़ज़लकार की संवेदना ,कल्पना शक्ति और बौद्धिकता का संश्लेषण शे'र को बुलंद करता है । निम्न अशआर उसके उदाहरण हैं-

यहाँ तक हो गया था पानी - पानी

ये पानी की निशानी कह रही है

कौन था उस पहाड़ के पीछे

किसकी ख़ातिर रुका रहा कोहरा

झील पर यूँ चमक रही है धूप

जैसे पानी की हो गई है धूप

पहले शे'र में एक चित्र खिंचता है ; दूसरे में सस्पेंस है और तीसरे में  कोलाज़ है । पहले शे'र में मनुष्य का ज़िक्र न होते हुए भी उसकी तह में मनुष्य ही की चिंता है। दूसरे शे'र में सूर्य न होते हुए भी है । तीसरे शे'र में धूप के पानी मे घुलने और चमक उठने का बिम्ब ग़ज़लकार के सामर्थ्य को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त है ।

आराधना जी के ग़ज़ल - संसार में प्रकृति और मनुष्य का अन्तर्सम्बन्ध ,मन और मस्तिष्क के उल्लास - उद्वेलन तथा कल्पना और विवेचना का संतुलन देखने योग्य है। यहाँ बेकार का हाहाकार और कोलाहल न के बराबर है। तग़ज़्ज़ुल से काम लेने वाले ग़ज़लकार को शोर शराबे की आवश्यकता नहीं होती ।निम्न अशआर को देखिए

नज़र आती नहीं है आग लेकिन

धुआं सा क्यों निकलता है मकां से

गाँव सारे हो गए बेनूर से

रंग में बस राजधानी रह गई

पहले शे'र में विघटन की ओर बढ़ते घर-परिवार की ओर संकेत है ।दूसरे में आम आदमी और सत्ता के बीच की खाई की चिंता है । इस ग़ज़ल संग्रह में जगह- जगह सकून और आशाओं से भरपूर अशआर मिलते हैं ।

मुद्दतों के बाद ऐसा ख़ुशगवार है मौसम

खोलिये दरीचों को ख़ुशबुओं को आना है

इस संग्रह में रदीफ़ भी बहुत ही रोचक और चुनौती पूर्ण हैं । धूप ,बारिश ,कोहरा ,ख़ुशबू ,मिट्टी , तितली मछली आदि रदीफ़ पर पूरी ग़ज़ल कहने का साहस करना जहाँ ग़ज़लकार की प्रयोगधर्मिता का द्योतक है, वहीं ऐसी रदीफ़ का निर्वाह करना ग़ज़लकार के सिद्धहस्त होने का । कुछ अशआर देखिए

ऐसा क्या है तुम्हारी आँखों मे

तुमको ढूंढे गली गली आंखें

तेरी आँखों को देखकर ये लगा

फूल चुप और बोलती ख़ुशबू

इस संग्रह की ग़ज़लें परम्परा से जुड़ी होकर भी अपनी अलग पहचान साबित करने की शक्ति रखती हैं ।यही शक्ति आराधना जी को ग़ज़ल के संसार में विशिष्ट स्थान प्रदान करेगी ।मैं उन्हें इस बहुमूल्य साहित्यिक निधि के लिए हार्दिक बधाई प्रेषित करता हूँ और उनके उज्ज्वल साहित्यिक भविष्य के लिए मंगल कामना करता हूँ ।

समीक्षा- विजय स्वर्णकार( वरिष्ठ ग़ज़लकार)