धर्म सामाजिक अवधारणा और राजनीति

धर्म सामाजिक अवधारणा और राजनीति

फीचर्स डेस्क। एसी अवधारणा है कि अभ्यूदय काल में अन्य प्राणिमात्र की भाँति मनुष्य भी जंगलवासी थे। शनैः-२ मानव का बौद्धिक विकास हुआ। संगठन की जरूरत महसूस होनें पर परिवार कुटुम्बो कबीलो में संगठित हुआ। परन्तु अभी भी स्वेच्छाचारिता तथा जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चरित्रार्थ थी। आए दिन जर जोरू जमीन के लिए खून खराबा आम था। परन्तु मनुष्य प्रकृति के प्रति कृतज्ञ था। पत्थर से आग का प्रादुर्भाव हुवा।वन तथा पहाडो से आवास तथा पशुओ से भोजन मिला। पत्थर मे उसे भगवान दिखा। नदियों पहाडो पौधो के प्रति कृतज्ञ रहा।

कहा गया है कि जरूरत ही अविष्कार की जननी है। अतः समाज के प्रबुद्ध वर्ग ने सामाजिक समरसता हेतु सामाजिक नियमों की परिकल्पना की। कि समाज की हर इकाई को अपनें मौलिक अधिकार मिलें। लोगो की सामृथ्य हेतु उन्हे कार्य मिले। परन्तु नियमों की अनुपालना में कठिनाई यह थी। कि ज्यादातर लोगो का बौधिक स्तर का निम्न होना। लेकिन लोग देवपूजक थे। सब कुछ प्रकृति पर निर्भर था।

अतः नियमों की अनुपालना हेतु प्राकृतिक देवताओ जैसे सूर्यदेव चन्द्रदेव आदि अन्यान्य देवताओ की परिकल्पना बहुत बडी देन माना जा सकता है परन्तु उनके प्रकोप से डराकर नियमों की अनुपालना करवाना

पहली सबसे बडी भूल थी। लोगो को जागरूक करनें के बजाय उन्हे भीरु बना दिया गया। यहाँ से शिक्षण एवम् नीति निर्धारण का कार्य अपने हाथो मे लिया ये ब्राह्मण कहलाए। राज्य एवम् राज्य की सुरक्षा हेतु राजा एवम् सैनिको का चुनाव उनकी युद्धकला निपुणता के आधार पर किया गया क्षत्रिय कहलाए। विपणन का कार्य मितव्ययी लोगो को दिया गया वे वणिक कहलाए। तथा अन्य लोगो को भी उनकी क्षमता के अनुसार कार्य दिए गये।

इस तरह कर्म प्रधान वर्ण व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुवा। इस व्यवस्था का मुख्य स्तम्भ यह चौथा पाया ही रहा होगा। क्यो कि ये एक तरह से समाज का पोषण करते थे। राजा को कर देकर विप्र को दक्षिणा देकर लोगो की मूल भूत आवश्यकताएं को पूरा कर। यह वर्ग वास्तव मे धुरी था। लेकिन सत्ता मद ने अपना रंग दिखाया और ब्राह्मण को श्रेष्ठ कहकर राजा ने अपना हित साधा और स्वयंभू बन बैठा। और मुख्य वर्ग धुरी होते हुए भी तुच्छ बना दिया गया।

महाभारतकाल के पूर्व तक वर्णव्यवस्था कर्म प्रधान रही। रावण ब्राह्मण होते हुए भी राक्षस कहलाया ज्ञानी सर्व शास्त्र ज्ञाता होते हुए भी कर्म आधार पर। वही व्यास जो कुवाँरी मछुवारन के पुत्र थे परन्तु अपने कर्म से ब्रह्मर्षि कहलाए। इसी काल में गुरु द्रोण का राज्य करनें का मोह अर्जुन का पक्षधर बन बैठा।अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ देखनें की लालसा ने नीति निर्धारक को अनीति पर चलनें पर विवश किया। यह जानते हुए क्षत्रियोचित गुणों के धनी कुन्ती पुत्र कर्ण को सूत पुत्र कहना। एकलब्य भी जो कर्म से क्षत्रिय था को क्षत्रिय न मानना। फिर गुरुदक्षिणामें अंगूठा मांग लेना।

यही से वंशवाद की शुरुवात हुई। वर्ण व्यवस्था पैतृक सम्पति बन गयी। काश जनचेतना का संचार कर नियमों की अनुपालना करवायी जाती। तो धर्म भी बच जाता और समाज भी बच जाता। सामाजिक समरसता भी कायम हो जाती।

धर्म के तथाकथित ठेकेदारो की दुकाने आज भी राजनैतिक संरक्षण मे चल रही है। धर्म निर्पेक्ष्ता सापेक्षता के नाम पर। आखिर कब हम इन्सान बनेंगे। धर्म मजहब जरूरी है पर इन्सानियत खोकर नही बल्कि इन्सानियत की दम पर। अन्यथा हम राजनेताओ एवम् कठमुल्लाओं के हाथ की कठपुतलियाँ बने रहेंगे सदा-सर्वदा।

इनपुट : गोप कुमार मिश्र, वरिष्ठ साहित्यकार।