रामचरितमानस और दरबारी राग...

रामचरितमानस और दरबारी राग...

फीचर्स डेस्क। साहित्य की कसौटी राजनैतिक-मतवाद नहीं , लोकमानस है । इसलिए साहित्य स्वभाव से ही लोक का पक्षधर होता है । दरबारी राग भी होता तो है किन्तु  वह सत्ता की खुशामद का  राग होता है , दरबारियों के लिए पद और पुरस्कार का राग होता है , एक प्रकार से वह लोक के विरुद्ध होता है , वह लोक की सत्ता को विखंडित करता है , विच्छिन्न करता है। लोकजीवन की सहज एकता को तोड़ने वाला होता है । उसके पीछे उसका स्वार्थ छिपा हुआ होता है ।

स्वतन्त्रता-आन्दोलन की राजनीति राष्ट्र की एकता के लिए थी ,  लेकिन स्वतन्त्रता के बाद की राजनीति इस एकता के विरुद्ध खड़ी हो गयी । उसकी कहानी बहुत लंबी है ,लेकिन  संक्षेप में उसकी दिशा  और गति  लोकजीवन की एकता और  लोकमंगल के विरुद्ध  है , उसकी दिशा  केवल और केवल  राजसत्ता है । इस राजनीति के साथ साहित्य का दरबारी राग भी बदला और  नये नये रूपों में सिद्धान्त बघारने लगा  ।  पद भी पाया और पुरस्कार के तन्त्र पर भी अधिकार जमा लिया । विश्वविद्यालयों में ऐसे दरबारी राग का साम्राज्य-विस्तार हुआ । लोकजीवन से दूर  चला गया , परन्तु लोकजीवन से उसे लेना भी क्या था ?  साहित्य में यह राजनीति का आक्रमण था  और इसका प्रवेश आलोचना के माध्यम से हुआ ।  लोकमंगल का साहित्य-सृजन तो दरबारी राग के बूते की बात थी नहीं , वह आलोचना के माध्यम से ही आ सकता था , आया भी ।  राजनीति ने उसे हजार हाथोंसे उपकृत किया । उसका दुस्साहस इतना बढ़ा कि वह नित-नित लोक-नमस्कृत महाकवियों को भी फ़ेल-पास करने लगा । हालाँकि  उसके पास उनके जैसी एक पंक्ति भी लिखने की औकात नहीं थी ,  जो लोकस्वीकृत हो सके ।

 उस कठोर जमाने में जब "लोग सीद्यमान सोच बस" थे ,जनता के पक्ष में था ही कौन? ये भक्तिकाल के आचार्य मनीषी महाकवि ही तो थे, जिन्होंने लोकजीवन को विश्वास का आधार दिया था । मंगलभवन अमंगल हारी।तुलसीदास के लोटा सोटा भी चुरा लिये गये थे । उन पर कम आक्रमण हुआ था क्या? ये बेचारे आलोचक उस परिस्थिति को समझ सकेंगे?सोचिय विप्र जो वेद न जाना।तुलसीदास ने बादशाही जमाने में कहा- सोचिय नृपति जो नीति न जाना ।

जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना ।

वह शासक निश्चित ही चिन्ता के योग्य है , जिसे अपने देश और प्रदेश की जनता अपने ही प्राणों के समान प्रिय नहीं है । वह शासक अवश्य ही चिन्तनीय है , जो नीति को नहीं जानता है , जिसमें नैतिकता नहीं है ।

तुम शोध करते रहे थे कि तुलसीदास वर्णवादी हिन्दू थे ? लेकिन तुम कभी समाज के निचले स्तर पर उतरे ही नहीं ,

वह स्वर सुन नहीं सके ,जो सारे  दायरे तोड़ कर लोकजीवन के आंगन में आज भी गूंज रहा है-

मंगलभवन अमंगल-हारी ।

आज भी काव्य की उस कसौटी का कोई दूसरा विकल्प नहीं है -सुरसरि सम सबकर हित होई ।

शोध का आपका उद्देश्य शत्रुताएं बढाते रहना है ?

तुम्हारी बगल में बिरादरी का सांप बैठा है!

उस जमाने में रहीम ने कह दिया था -

रामचरितमानस विमल ,सन्तन जीवन-प्रान ।

हिन्दुआन कों वेद सम ,यवनहिं प्रकट कुरान ।

किन्तु दुर्भाग्य  यह है कि अभी अभी एक  प्रदेश के मन्त्री ने वोट की राजनीति करने के लिए  राष्ट्र की लोकचेतना को छिन्न-विच्छिन्न करने के अपने सदाव्रत के लिए रामचरितमानस का सवाल उठाया , तो  दरबारी राग भी  अलाप। भरने लगा ।  बहस करना उसका पेशा है , इसके अलावा वह कर भी क्या सकता है ?

परन्तु  वह उपेक्षा के योग्य है क्योंकि लोकजीवन से उसका कोई नाता-रिश्ता है नहीं ,  लोकजीवन में उसकी रीझ बूझ भी कानी कौड़ी बराबर है । रामचरित मानस की कसौटी तो प्रेम है ,शबरी और केवट है ,निषाद है ,वानर जैसी वनवासी जातियां हैं ,हाँ तुम अपने मतलब के लिए नफरत पैदा करते हो ,नफरत बढाते हो और देश की राजनीति को गर्त में ले आये हो ।