माँ की मनोव्यथा...

माँ की मनोव्यथा...

फीचर्स डेस्क। रमिया की आंँखें फटी रह गई। सुंदर सिल्क की साड़ी,स्वर्णाभूषण ,सुहागपिटारी, इतना सब कुछ!  "बीबी जी! यह सब किसके लिए है।" "अरे रमिया! तू बात बहुत करती है। पहले सारा काम निपटा।" मालकिन नाराज होते हुए बोली। "अरे दो दिन बाद सिंधारा है, तीज है। अपनी सुनंदा के ससुराल भेजना है।बिटिया की पहली तीज है।"

 मालकिन ने झुंँझलाते हुए बोला।

"अरे रमिया,अब तो बच्चों के पास फुर्सत ही नहीं है। सुनंदा को बोला था ,पहली तीज है घर आजा!"मालकिन अपना दुख बताते हुए बोली।   

"अच्छा है बीबी जी! आप सुनंदा बिटिया से मिलकर आओगे तो आपका जी भी अच्छा हो जाएगा!" रमिया ने अपनी समझदारी दिखाते हुए बोला।

 फिर रमिया कुछ सोच में पड़ गई। उसकी बेटी राधा का ब्याह भी तो कुछ महीने पहले हुआ था। उसे तो ध्यान ही न रहा। कब सावन शुरू हुआ? और यहाँ सिंधारा,तीज वह तो सब भूल गई। झट से मेम साहब के पास जाकर बैठी।

  रमिया बोली,"बीबी जी एक बात कहूंँ! यदि आप बुरा न मानो तो कुछ पैसे उधार दे दो। मैं भी राधा के ससुराल सामान भेज देती हूंँ। वह भी मायके की राह देखती होगी।"

 "अभी राधा के बापू को बोलूंँगी तो वह पैसे तो न देगा बल्कि दो बात और सुना देगा। कल ही लड़ रहा था कि मुई दारू के लिए पैसे चाहिए।"अपनी व्यथा सुनाते हुए  रमिया बोली।

 मालकिन बोली,"ले जा! महीने के बाद चुकता कर दियो। वार- त्योहार तो सब मनाते हैं। पर ये पैसे अपने पति को मत दे देना।"

मालकिन ने एक साड़ी देते हुए बोला ,"यह ले! मेरी तरफ से राधा को दे देना। राधा भी तो सुनंदा के साथ इसी घर में पली बढ़ी हुई है।"

रमिया तो मालकिन का धन्यवाद कर रही थी। हर बार जब भी जरूरत पड़ती है मालकिन उसकी मदद कर देती है।

रमिया चली गई ।बाद में मैं सोच रही थी कि मांँ का मन तो सबका एक सा होता है। मुई गरीबी, बीच में आड़े आ जाती है।

 इनपुट सोर्स : रेखा मित्तल, चंडीगढ़ सिटी।