"चंदन सी बनना चाहती हूँ "
ध्वस्त है तन विक्षिप्त है मन,
पल पल रिस रही है आत्मा।
बस मन की यही एक इच्छा,
ये सब मिल कर चंदन सी घिस जाऊं,
सुगंधित हो जाऊं,और लग जाऊं उनके मन में
जिनके मन में पीड़ा है हज़ारों।
मैं हो जाना चाहती हूँ समर्पण सेवा में,
और भरना चाहती हूँ असंख्य घाव,
जो चीख चित्कार कर रहे हैं घायल मन में,
मैं हो जाना चाहती हूँ सुकून उनके मन के
जहां पल पल टूट रहे हैं व्याकुल तन।
मैं खुद टूट कर मेहंदी के पत्तों की तरह,
उन हाथों में सजना चाहती हूँ।
जिन हाथों में नहीं रच पाये सुंदर रंग,
मैं रहना चाहती हूँ उनका साया बनकर,
जिसके साथ कोई नहीं थे मुसीबतों में।
मैं बन जाना चाहती हूँ उनका आँचल,
जिनकी गोद नहीं भरी सुनी रह गई।
मैं उनके साथ चलना चाहती हूँ हर पथ में,
जो माँ बाप के साये से महरूम रह गए,
मैं रुकना चाहती हूँ हर किसी के मन में।
ध्वस्त है तन विक्षिप्त है मन,
पल पल रिस रही है आत्मा।
बस मन की यही एक इच्छा,
ये सब मिल कर चंदन सी घिस जाऊं,
सुगंधित हो जाऊं, और लग जाऊं उनके मन में
जिनके मन में पीड़ा है हज़ारों।
इनपुट : पूजा गुप्ता, मेम्बर फोकस साहित्य ग्रुप।