हॉफ लव एंड फूल स्टोरी...!

हॉफ लव एंड फूल स्टोरी...!

फीचर्स डेस्क । कॉलेज का पहला दिन मेरा नहीं उसका, वैसे भी 12वीं के बाद कॉलेज में दाखिला लेने के बाद बाजू से लेकर लास्ट बेंच तक पर बैठने वाले सभी साथी नए होते हैं। शायद ही कभी ऐसा इत्तेफाक होता होगा कि एक दो साथी अपने स्कूल के मिल जाते हों। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही था। मॉडल हिस्ट्री की प्रोफसर आ चुकीं थी। अचानक से दरवाजे से एक आवाज आई में आई कम इन बिल्कुल उसी तरह से जैसे अभी तक स्कूल में टीचर के आने के बाद जब कोई लेट होता था तो अंदर आने की अनुमति मांगता था।

मैडम, थोड़ा गौर से चश्मे के अंदर से उस शख्स की फेश को हाईस्पीड से पढ़ते हुए जुबान से कुछ कहने के बजाय अंदर आने की अनुमति दे दीं। शायद इसलिए कि उसका पहला दिन था। पहले दिन लेट होना स्कूल टाइम से बिगड़ी हुई आदत की देन थी। वैसे तो सीट कई खाली थी। लेकिन वह मेरे बाजू में बैठ गया। वह गलत नहीं हो सकता, ऐसा मैने सोचा। देर से आने और जल्दी बैठने की शायद उसके लिए यह सीट अधिक उपयुक्त लगी होगी।

खैर, मैडम, का लेक्चर शुरू हुआ। सभी का ध्यान मैडम के लेक्चर पर था। मेरा भी। लेकिन बीच-बीच में उसके ओर न चाहते हुए मैं गर्दन घुमा लेती थी। उसके बदन से भीनी-भीनी से खुशबू निकल रही थी। शायद कोई ब्रांडेड कंपनी का परफ्यूम लगा रखा था। 45 मिनट का लेक्चर खत्म हुआ मैडम, बाहर निकल चुकी थीं। सभी हॉल से निकल रहे थे। मैं वेट कर रही थी कि वो निकले तो मैं भी निकल पाऊ, दरअसल, मैं दीवार की तरफ थी, निकलना उसी की साइड से था। एक साथ निकलने की भीड़ थी इसलिए बोल भी नहीं पा रही थी कि प्लीज जानें दीजिए। मेरी भौहें देरी होने की गवाही शायद उसने पढ़ लिया। अचानक से उसके लफ्ज वोह सारी... आप निकलना चाहती हैं न। मैं कुछ बोलना ठीक नहीं समझी और गर्दन हिलाकर ही उसकी बातों की जवाब देना उचित समझा। रास्ता दिया निकल भी गई। अगला मेरी हिन्दी की क्लास थी। मैं जल्दी जल्दी हिन्दी डिपार्टमेंट में पहुंची ही थी कि न जाने किस रास्ते से वह वहां पहले ही पहुंच चुका था। क्लास में दाखिल होने के बाद 60 से 70 स्टूडेंट्स की भीड़ में उसका चेहरा सबसे पहले दिख गया। लेकिन इस बार हम दोनों एक बेंच के स्पेश में बैठे थे।

हिन्दी की प्रोफेसर बहुत सरल होते हैं यह सुन रखा था या फिर स्कूली दिनों की भ्रम था। चंद सेकेण्ड में जब प्रोफसर साहब दाखिल हुए तो फिजिक्स और कमेस्ट्री के किसी टफ फार्मुलें से कम नहीं लग रहे थे। हालांकि उनका द्वारा दिया गया ज्ञान अर्जित करने का भी 45 मिनट का मौका मिला। अब लास्ट सब्जेक्ट था पॉलिटकल साइंस जो मैं अपने मन से नहीं ली थी। पापा के दबाव का कारण था, अनचाहा पॉलिटकल साइंस, लेकिन अब है सब्जेक्ट तो क्लास करना था। मैं 15 मिनट के स्पेश के बाद शुरू होने वाले इस पॉलिटकल साइंस के क्लास में पहुंची तो आपके समझ से इत्तेफाक और मेरे समझ से परेशानी का सामना वह बंदा वहां भी पहले से ही था। अब आप समझ ही गए होंगे कि उसका और मेरा सब्जेक्स सेम थे। तो रोजना की मुलाकात इत्तेफाक से नियति की देन में बदल चुका थी।

एक महीने, दो महीने, कभी दो बेंच दूर तो कभी सेम बेंच। इसी तरह से हमारी मुलाकाते होती रहीं। एग्जाम में सिर्फ एक महीने का दिन शेष बचा हुआ था। सभी  लोग अपने अपने नोट्स बनाने और रिविजन करने में ऐसे जुटे हुए थे जैसे किसी माउंटेन पर्वत पर कॉप्टीशन जीतने की तैयारी कर रहें हों। हालांकि इससे कम भी नहीं था। स्कूलों में बता दिया जाता था कि कहां से कहां तक पढ़ाना है।

यह पहला मौका था जब ये पता ही नहीं था कि कहां से कहां तक पढऩा है। हां, इसी बीच कुछ गल्र्स भी लाइफ में आईं जो अब अच्छी सहेली की रोल में थीं। कभी-कभी उन  लोगों की ओर से उसको लेकर मजाक करना मुझे उसके ओर और अधिक आकर्षित करने लगीं थी। लेकिन अभी तक उसके बारे में बहुत अधिक नहीं जान पाई थी। फिर परीक्षा का फस्र्ट पेपर आया पूरे बैचेनी के साथ कॉलेज में दाखिल हुईं। इसके पहले घर के बड़े बुर्जुग तो किये ही थे मैंने खुद भी अपने इष्टï देव से परीक्षा में आने वाले पेपर अच्छे से हो इसकी मन्नते मांगना नहीं भुली थी।

शायद यह मेरे स्कूली दिनों की हर साल पेपर के समय में मांगे जाने वाली मन्नतों का संस्कार था जो अभी तक नहीं भुला पाया था। उसने भी पेपर देने के लिए कॉलेज में दाखिल हुआ। पहला पेपर देकर जब हम दोनों बाहर निकले तो उसका पेपर कैसा गया ये मेरा पूछने का मन कर दिया। मैने कहा हलो... जी, बस एक जवाब। कैसा हुआ आपका पेपर बोला ठीक था। इसके बाद न उसने कुछ पूछा न मैने। घर आने के बाद उसकी आदत, उसकी मुस्कान, उसकी चाकलेटी चेहरा यही सब याद आता रहा। रात ज्यादा हो गई थी इसलिए सो गई। सुबह कॉलेज पहुंची पेपर का दूसरा दिन वो दिखा नहीं। मैं लेट थी या फिर वो अभी आया नहीं था। हालांकि इतना सब सोचने का टाइम कहां था, लेट हो रही थी इसलिए सीधे एग्जाम हॉल मेंं पहुंची। पेपर देकर निकली तो फिर नहीं दिखा।

ये प्यार था या फिर कुछ और न देख पाने की जो बेचैनी थी, वह या तो दिल ही जानता था या फिर मैं ही। फिर तीसरे दिन पेपर के बाद वह मिला और एक कागज का टुकड़ा दिया। वो भी एकदम 80 के दशक वाले बॉलीबुड हीरों की तरह शर्माते हुए मैने कहां क्या है। उसने कहां देख लेना और अब हम नहीं मिलेंगे। क्यों नहीं मिलेंगे, यह पूछने का समय ही  नहीं दिया और बहुत तेजी के साथ निकल गया। मन तो नहीं कर रहा था लेकिन प्यार जो न करा दें। कुछ दूर कॉलेज से निकलने के बाद उपर से कोरा दिखने वाले उस कागज को खोला तो चार शब्द पढऩे के बाद आगे पढऩे की हिम्मत ही  नहीं जुटा पाई। उसने लिखा था, अब हम कभी नहीं मिलेंगे, मैने पापा के कहनें पर दाखिला लिया था लेकिन मुझे मेडिकल की तैयारी करनी थी।

ये हिस्ट्री मुझे समझ में नहीं आती है। अब मैं जा रहा हूं मेडिकल की तैयारी करने, उपर वाला चाहा तो कभी मिलुंगा जरूर। बाय..। उसका बाय..। ऐसा लग रहा था कि अभी तक का सबसे बुरा सपना हो। जो जेहन से कभी उतरने वाला नहीं था। लेकिन सच कड़वा होता है यह मैंने सुन रखा था। ऐसा हुआ भी वह चला गया मैं सेकेड ईयर में पहुंची, फिर धीरे धीरे ग्रेजुएशन कर लिया। पुराने विचारों के मां बाप के कारण शादी भी हो गई। अच्छा पति भी मिला लेकिन चेहरा एक ऐसा जो हमेशा आंखों के सामने घुमता रहता था। एक ऐसी आवाज जो कहती थी कहां हो। कैसे बताती कहां हूं, फिर जिसका चेहरा सामने न हो उससे बात करने का मतलब घर वाले किसी मनरोगी डॉक्टर से मिलाने ले जाते। बस यही डर शांत किये रखा। काफी साल गुजर गए 2014 मेरे पति को हॉर्ट की प्राब्लम हो गई। किसी रिश्तेदार ने हमारे ही शहर के एक बड़े डॉक्टर का नाम सुझाया। हम लोग लेकर वहां पहुंचे।

हॉस्पिटल के बाहर बहुत अधिक भीड़ थी। पर्चे बनाने के बाद किसी तरह डॉक्टर साहब के चेम्बर तक पहुंच पाईं थी। चेम्बर के बाहर लगी नेमप्लेट पर लिखा था। डॉ. ..... मिश्रा, सीनियर हॉर्टस्पेशलिस्ट। नेमप्लेट पर नाम पढऩे के बाद पता नहीं बॉडी से पसीने आ रहे थे। लेकिन इस नाम से कोई और हो सकता है। यही अपने दिल को दिलासा दिलाकर खुद को हॉट अटैक से बचा पाई थीं। मेरे पति का नंबर आया तो पेंशेंट के साथ सिर्फ एक ही लोगों को जाने की अनुमति थी तो ससुराल वाले मुझे जाने के लिए बोले।

मैं पति को लेकर अंदर प्रवेश किया तो सामने फार्मल डे्रस में डॉक्टर कोट पहने वहीं चाकलेटी चेहरा जो 1999 में कभी हिस्ट्री के क्लास में मिला था। सामने उसका होना मेरे लिए किसी भी हाल में अपने को संभलपाना मुश्किल था। कुछ बोलने की शब्द नहीं थे कि उधर से एक आवाज आई तुम ... हो न। उसने कैसे पहचाना ये नहीं पता मैने कैसे पहचाना ये आपको पता लग गया होगा। प्यार में ऐसा ही होता है। फिर उसने चेक किया। मेरे कुछ बातें हुईं। बातों -बातों में पता लगा उसकी भी शादी हो चुकी हैं। उसकी लाइफ पार्टनर भी सिटी के एक अच्छे हॉस्पिटल में डॉक्टर है। इसके बाद वहां से निकले तो आज तक कभी नहीं मिले। 

!! इट इज हॉफ लव ऑफ फूल स्टोरी...!! 

 नितेश सिंह, लखनऊ । 

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