आफताब श्रद्धा की अप्रेम कहानी

लड़कियां प्यार और सेक्स में एक उम्र में बहुत फर्क नहीं कर पातीं। दोनों उसकी जरूरतें हैं। साथी की तलाश इतनी प्रबल होती है कि वे सही-गलत का फैसला भी कई बार नहीं कर पाती। युवा हैं तो गलतियां भी करेंगे, बगावत भी, सीखेंगे भी और हारेंगे भी। यही समय है जब उन्हें परिवार का साथ चाहिए...

आफताब श्रद्धा की अप्रेम कहानी

फीचर्स डेस्क। कुछ दिन से यह खबर सबसे ज्यादा चल रही है और आतंकित कर रही है। श्रद्धा वालकर जब डेटिंग ऐप बंबल में आफताब पूनावाला से मिली होगी, साथ रहने की सोची होगी, उसके दिमाग में यह ख्याल कभी नहीं आया होगा कि उसका अंत इतनी जल्दी और इतना खूंखार होगा। श्रद्धा वालकर की गलती बस इतनी थी कि उसने गलत जगह प्यार और विश्वास तलाश किया। ऐसा भी नहीं है कि श्रद्धा पहली और आखिरी लड़की होगी, जिसे प्यार में धोखा मिला हो। श्रद्धा की कहानी पढ़ते और सुनते समय मेरे दिमाग में अपने आसपास की ऐसी कई लड़कियों की छवियां घूमने लगी हैं जो गलत और टॉक्सिक रिश्ते में फंसी। कुछ उसमें से उबर पाई, कुछ नहीं। सालों पहले मुंबई में मेरे साथ लोकल ट्रेन में सफर करने वाली एक प्यारी सी मराठी लड़की को अपने ऑफिस में काम करने वाले एक मैरिड आदमी से प्रेम हो गया।

आदमी उससे कहता कि वो जल्द अपनी पत्नी को तलाक दे कर उससे शादी कर लेगा, लड़की उस पर यकीं करती चली गई। अपने माता-पिता से झगड़ कर बांद्रा के वर्किंग वूमन हॉस्टल में रहने लगी। अपनी कमाई का पचास प्रतिशत उस आदमी को देने लगी, सिर्फ इस आस पर कि एक दिन आएगा जब वो उससे शादी करेगा। साल में एकाध बार दोनों घूमने जाते। वो उस आदमी से ज्यादा सवाल करती तो वो उस पर हाथ उठा देता। चोट जब ज्यादा लग जाती तो माफी भी मांग लेता। वो टुकड़ों-टुकड़ों में अपनी दास्तां हम लोकल ट्रेन की सहेलियों को बताती। हम कहते कि वो तुमसे कभी शादी नहीं करेगा, तुम इस रिश्ते से निकलो। उसे हमारी बात अच्छी नहीं लगती। वो तो मंगल सूत्र भी पहनने लगी थी और सिंदूर भी लगाने लगी थी। लगातार हर तरह से कमजोर होती अपनी सहेली को एक टॉक्सिक रिश्ते में गल-गल कर मरते देखना तोड़ देता है। पर उसे तब किसी की बात नहीं सुननी थी। बस, मन में एक विश्वास बैठा रखा था कि वो आदमी एक ना एक दिन उसके पास आएगा।

मैं मुंबई से दिल्ली आ गई और बहुत बाद में पता चला कि उस लड़की से सुसाइड कर लिया था। शायद उसे पता चल गया था कि उसका विश्वास पूरी तरह चरमरा गया है। वह हर तरह से खाली हो चुकी थी। बहुत दिनों तक उसका चेहरा मुझे हॉन्ट करता रहा, यह भी लगता रहा कि शायद हम दोस्तों ने सही ढंग से उसे गाइड नहीं किया।

अपने एक उपन्यास एफओ जिंदगी के सिलसिले में चार साल पहले मेरी इसी विषय पर साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर उमा राव से लंबी बातचीत हुई। मुझे अपने उपन्यास के क्लाइमेक्स के लिए यह तय करना था कि क्या किसी इनसान का मूल स्वभाव बदल सकता है? ये जो हम सुबह का भूला शाम को घर लौट आया नुमा कहावतें जिंदगी में उतारने की कोशिश करते हैं, क्या यह असल जिंदगी में होता है? उमा राव के अनुसार, आदमी का मूल स्वभाव कभी नहीं बदलता। उसकी आदतें, उसका आचार-विचार, सोच पूरे सिरे से या सौ प्रतिशत बदलना नामुमकिन है। यानी अगर कोई व्यक्ति (स्त्री पुरुष दोनों )गुस्सैल है, खूंखार है, बदमाश है, खोटी नीयत वाला है, चोर है, बेवफा है तो ऐसा नहीं होगा कि एक सुबह आएगी या एक घटना घटेगी और वो बदल जाएगा।

श्रद्धा हो या मुंबई लोकल ट्रेन की मेरी सहेली, दोनों में एक बात कॉमन पा रही हूं। दोनों को अपने परिवार वालों से निराशा मिली। श्रद्धा अपने घर से इतने दिनों से अलग रही, उसके बारे में परिवार वालों ने पता करना ही नहीं चाहा। मेरी मुंबई वाली मित्र कहती थीं कि उसके आई और बाबा उसके साथ बुरा बर्ताव करते हैं। भाई को ज्यादा प्यार करते हैं। उसे हमेशा कोसते रहते हैं। ये एक बड़ी वजह थी जो वो उस विवाहित आदमी के साथ जुड़ी, क्योंकि वो उसकी जिंदगी का पहला आदमी था जो झूठा ही सही उसकी तारीफ करता था, उसे प्यार से गले लगाता था, उसे शारीरिक सुख देता था और यह आश्वासन भी कि एक दिन सब ठीक होगा।

आज आफताब के बहाने हम बहस को दूसरी तरफ ले कर जा रहे हैं, इसे एक धर्म से जोड़ रहे हैं। लिव इन रिश्तों की नाकामियों से जोड़ रहे हैं। पर क्या यहां इस बात पर बात करना जरूरी नहीं है कि परिवारों में लड़कियों को यह विश्वास, आश्वासन और प्यार मिलना चाहिए कि वो पूरी हिम्मत और चाहत के साथ घर लौट सके? क्या घर वापसी सिर्फ बेटों की होती है बेटियों की नहीं? गलतियां बेटियों से होती है बेटों से नहीं? घर और परिवार को तो वो छांव होना चाहिए जहां घर के हर सदस्य का स्वागत हो। अगर श्रद्धा के परिवार वाले उसे यह छांव नहीं दे पाए, यकीं नहीं दे पाए कि वो उसके साथ हर हाल में खड़े हैं, तो शायद उसे कभी आफताब के साथ घर छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ती।

मैंने यह भी पाया है कि लड़कियां प्यार और सेक्स में एक उम्र में बहुत फर्क नहीं कर पातीं। दोनों उसकी जरूरतें हैं। साथी की तलाश इतनी प्रबल होती है कि वे सही-गलत का फैसला भी कई बार नहीं कर पाती। युवा हैं तो गलतियां भी करेंगे, बगावत भी, सीखेंगे भी और हारेंगे भी। यही समय है जब उन्हें परिवार का साथ चाहिए।

एक सहेली को खोने का गिल्ट मेरे भीतर हमेशा रहेगा। काश, उसे उसके अपने यह आश्वासन दे पाते कि तुम्हारे साथ जो भी हो, वापस आओ, हम तुम्हारे साथ हैं।

इनपुट सोर्स : वरिष्ठ लेखिका जयंती रंगनाथन के वाल से साभार...