सफर का एक हमसफर ऐसा भी....! 

सफर का एक हमसफर ऐसा भी....! 

फीचर्स डेस्क। बिलासपुर रेलवे स्टेशन रात कोई 11 बजें होंगे। छत्तीसगढ़ स्टेट का एक खूबसूरत रेलवे स्टेशन आप कह सकते हैं। यूपी के इलाहाबाद होते हुए लखनऊ तक आना था। रिजर्वेशन था नहीं इसलिए सीट की फ्रिक हो रही थी, उपर से ट्रेन करीब 2 घंटे लेट थी। घर की यादों में खोए, आफिस के दोस्तों को मिस करने का भी शायद यही टाइम था। प्लेटफार्म पर जिस जगह पिछले 3 घंटे से बैठे थे अचानक से बगल में किसी के बैठने का अभास गर्दन घुमानें को प्रेरित कर दिया। उम्र लगभग 30 साल, रंग गोरा और चेहरे पर गजब का अत्मविश्वास इतना बताने के लिए काफी था कि सफर करने के लिए अकेले निकल पड़ी है पर डर नाम की कोई चीज नहीं थी। वहीं रात में भी चश्मा बैग की जगह बालों पर टंगा और जींस के साथ एक सुंदर सी टॉप बया कर रही थी कि आधुनिकता का कब्जा तो है पर सालिनता के आगे थोड़ा बौना होना शायद 21 वीं सदीं को मुंह चिढ़ा रहा था।

फिलहाल, अपने अपने बारे में दोनों लोग खोए थे कि एलांउस हुआ दुर्ग से छपरा तक जाने वाली गाड़ी 15 मिनट देरी से आने की सूचना है, कष्टï के लिए खेद है। अचानक से मुझे हंसी आ गई पर ये हंसी बनावटी नहीं थी। शायद पिछले 3 घंटे की वेट करने की खीझ थी जो हंसी के रूप में निकल पड़ी। साइड से एक आवाज आई कहां जाना है..., पल भर के लिए भ्रम लगा फिर मैने कहां लखनऊ। खास लखनऊ या कहीं और, ये शब्द पूरी तरह से वेरीफाई करने के लिए काफी थे कि ये प्रश्न बगल से ही पूछ जा रहे हैं। मैने कहां जी लखनऊ सिटी इतना कहनें के बाद मैं अपने मोबाइल की स्कीन की तरफ नजर कर लिया। महज 3 सेंकेड के बाद वह बोली मुझे भी लखनऊ ही जाना है पर इलाहाबाद से बस से जाउंगी।

ओह, अच्छा, फिर उधर से एक आवाज जी। मैने उत्सकुता बस पूछ लिया आपका रिजर्वेशन है तो उसने कहां नहीं जल्दी में निकलना पड़ा इसलिए नहीं हो पाया। बस, अब आगे के सवाल पूछने के बजाय सुनने का इससे बेहतर मौका और था भी नहीं। कुछ ही देर बाद ट्रेन आईं पर बिहार से नौकरी करने आने वालों की भीड़ कुछ ज्यादा ही थी, हालांकि यह पहली बार नहीं थी, वैसे इस टे्रन के बारे में ये बात सभी को पता भी है। किसी तरह से उपर की एक सीट मिली। मैने उसको इशारा किया उपर जाने के लिए तो बोली आप।

मैने कहां देखता हूं कही भी बैठ जाउंगा, बात पूरी होने के पहले उसने कहां आप भी आ जाओ। मुझे लगा हो सकता है जगह न मिले इसलिए ज्यादा सोचने के बजाय उपर की तरफ रुखसत करना बेहतर समझा। ट्रेन स्टेशन छोड़ती इसके पहले उसने किसी को फोन करके बॉय बोला। शायद कोई रिश्तेदार होगा, वाइस और स्टाइल पूरी तरह से बताने के लिए काफी थी कि ब्वाय फै्रंड नही था। महज 20 किलोमीटर गाड़ी आगे बढ़ी ही थी कि उसने बैग से एक पैकेट निकाला तब तक हमारी कोई बात नहीं हुई थी। पैकेट में चिप्स थे ऑफर किया एक बार तो लगा मना कर दूं। वो इसलिए कि टे्रन में कई तरह के वारदात सुनें भी थे और एक पत्रकार होने के वजह से खबरें अनगिनत सामने आईं भी थीं। लेकिन विश्वास जब अधिक हो तो घटनाएं होने की चांसेज कम हो जाते हैं।

इसलिए हाथ बढ़ाकर एक चिप्स निकाला था कि बोली और लिजिए। मैनें कहां नहीं थैक्स खाना खाकर निकला हूं। मैं सफर में कुछ खाता नहीं दूसरी बात यह भी थी कि घर आने की खुशी में कुछ खाया भी नहीं जाता है। तीन माह में एक बार मौका मिलता था घर आने का वह भी सिर्फ एक सप्ताह के लिए, मुझे लगता है कि किसी शादीशुदा व्यक्ति के लिए ये समय अधिक तो हो ही नही सकता लेकिन जिस पेशे से हूं वहां इससे अधिक समय की आप आशा भी नहीं कर सकते हैं। फिर बिना प्लीज कहें ही पूरी पैकेट हम दोनों ने मिलकर खत्म कर दिया। अब मुझे तो नहीं लेकिन उसको नींद की दस्तक साफ दिखने लगी थी। मैने कहां कि आप सोना चाहें तो मैं नीचे कहीं बैठ जाउं। अरे, नहीं आप चिंता न करें मैं सोने वाली नहीं हूं।

अब मेरी बारी थी, मैने पहला प्रश्न किया, आप यहीं की हैं या यूपी की? मुस्कुराते हुए वह बोली डिफेनेटली यूपी से, लगती नहीं क्या? मैने भी थोड़ी सी मुस्कान बेखरी और बोला नहीं ऐसी बात नहीं है। अब कुछ और पूछता कि दरसअल मैं अपने नाना के घर आई थी। मेरे नाना यहां पर जॉब करते हैं। अभी पिछले वीक में ही आई थी। एक साथ इतनी बातें बोल गई। ओके, तो आप लखनऊ से ही हैं। जी, एक शब्द में पुष्टिï कर दिया कि हमारा शहरा एक ही है लेकिन हम एक दूसरे के लिए अनजान हैं। ओके, क्या करतीं हैं आप? फिर एक शब्द जॉब, गर्वेमेंट या इसके पहले बोलीं नहीं प्राइवेट एक कंपनी में मार्केटिंग में हूं। हालांकि उसकी प्रोफेशन उसके फेस से काफी मिलता जुलता था। लेकिन मैने पूछा तो बताने में देरी भी नहीं लगी।

अब मैं कुछ सोचने लगा कि उसने पूछा आप क्या करते हो? बताने में तो अच्छा लगता है लेकिन दुनिया वाकिब है कि हमारे लाइफस्टाइल लोगों से डिफरेंट होती है। किसी भी चीज के लिए कोई फिक्स टाइम नहीं। लेकिन बताना तो था ही इसलिए मुंह से निकल पड़ा जर्नलिस्ट हूं। सच, उसके फेस की खुशी न जाने क्यों ऐसा लगा कुछ देर के लिए या तो मजाक लेने वाली है या फिर जर्नलिस्ट के बारे में बहुत नजदीक से जानती है। मै कयास लगा ही रहा था कि उसने कहा मेरा भाई भी जर्नलिस्ट था, मुंबई के एक न्यूज चैनल में लेकिन अब..।

अब क्या ? मैने भी पूछ ही लिया तो बोली नहीं अब वह घर पर ही रहता है, हां कुछ पापर्टी के काम में  लगा हुआ है। पेशे के बारे में तो अनजान था नहीं लेकिन क्यो छोड़ा उसने जानने की इच्छा हो रही थी। मैं कुछ पूछता इसके पहले ही उसने कहां आप लोगों में सच दिखाने, सच लिखने और सच बोलने की कला तो होती है पर बोलने और लिखने नहीं दिया जाता है। अब मुझे यह कहना तो बिल्कुल ठीक नहीं लगा कि नहीं ऐसी बात नहीं है। दरअसल, आजकल के मीडिया हाउस भी कारर्पोरेट कंपनियों की तरह बिजनेस करने जो लगे हैं। फिर काफी बातें हुर्ईं। रात को 3 बजने को थे। उसे तो नहीं पर मुझे ही न जाने कहां से नींद आ गई और बैठे-बैठे ही सो गया।

लगभग 7 बजें होंगे कि हाथों से हिलाकर उसने कहां चाय पीना है? मैनें कहा ओह मैं सो गया था तो बोली हां और मंै रखवाली कर रही थी। मैनें मुस्कराते हुए कहां ओह। उसने कहां कोई बात नहीं और बोगी के खिड़की से दो चाय लिया और मना करने के बावजूद चाय का पैसा खूद से दिया। इलाहाबाद पहुंचकर हम दोनो बस स्टाप पहुंचे, हालांकि मुझे तो ट्रेन से जाना था लेकिन साथ छोडऩे का मन नहीं किया। इलाहाबाद में हम लोगों ने खाना भी खाया। इसके बाद बस से लखनऊ के लिए रवाना हुए। रास्ते भर न जाने कितनी बातें हुई।

लखनऊ का घर का एड्रेस न तो उसने दिया और न मैने मांगा। हां मोबाइल नंबर एक दूसरे का जरूर ले लिए थे। लखनऊ पहुंचने के बाद वह ऑटोरिक्सा की बॉय बोली और चली गई। मैं कुछ पल उसे जाते हुए देखते रहा, लेकिन हाथ हिलाकर जानें की अनुमति देने के सिवा कोई चारा भी नहीं था। थोड़ी देरे बाद मैने भी ऑटोरिक्सा लिया और घर पहुंचा, घर पर सब खुश थे और मैं सफर के बारे में सोच रहा था। एक सप्ताह का समय बीत गया कोई फोन नहीं आया और खूद से करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। बिलासपुर के लिए लौटा था टे्रन फिर इलाहाबाद से पकड़ी तब तक उसका फोन आया। हलो मै... पहचाना? मैनें कहां हां, कैसी हो उसने कहां ठीक हूं कहां हो मैने कहा रास्ते में बिलासपुर जा रहा हूं।

एक गहरी सांस भरी आवाज कानों में फैल गई ओह..। मैने कहा क्या हुआ तो बोली पड़ी कल मिलना चाह रही थी। अब क्या करू छुट्टïी पूरी हो चुकी थी तो वापस लौट नही सकता था और दूबारा आने की चासेंज तीन महीने बाद का था। इसलिए बात कुछ देर तक करने के बाद फोन करने को बोलकर फोन काट दिया। कुछ दिन तक बाते होती रहीं लेकिन एक दिन उसका फोन बंद हुआ तो आज तक कभी घंटी नहीं गई। शायद उसका नंबर बंद हो गया हो। कुछ इस तरह से सफर की दोस्ती सफर तक जाकर सिमट गई। 

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